स्वाध्याय के लाभ-
स्वाध्यायशील व्यक्ति को भगवान् याज्ञवल्क्य ने इहलोक और परलोक सिद्धि के 10 साधन बतायें हैं- स्वाध्याय के लाभ के रूप में जिन लाभों को गिनाया गया है उनकी प्राप्ति के लिये व्यक्ति भटकता रहता है। लेकिन स्वाध्याय से ये अनायास ही समुदित रूप में व्यक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। आइये एक-एक लाभ पर विचार करते हैं-
1. युक्त मनवाला होता है (युक्तमना भवति)-लौकिक अथवा पारलौकिक किसी भी अर्थ की सिद्धि के लिये व्यक्ति के मन का एकाग्र होना, मन लगाकर कार्य करना आवश्यक है। लेकिन मन एकाग्र नहीं हो पाता। क्योंकि मन का स्वभाव चंचल है। लेकिन स्वाध्याय श्रमी व्यक्ति का मन धीरे-धीरे स्वतः ही एकाग्र होने लगता है। उसका चित्त स्थिर हो जाता है। परिणाम यह होता है कि जिस कार्य को करता है मन लगा कर करता है। मन लगाकर कार्य करने से फल की प्राप्ति शीघ्र ही होती है। मन की एकाग्रता किसी भी कार्य सिद्धि की नींव है। इसलिये इसकी गणना सर्वप्रथम की गयी है।इसके विपरीत जिसका मन अयुक्त है उसका तो कुछ भी नहीं श्रीकृष्ण के अनुसार-“नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस् भावना न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्’’ अयुक्त व्यक्ति की बुद्धि ही ठिकाने नहीं रहती और न अयुक्त की कोई भावना ही होती है, न संकल्प ही बन पाता है। भावना नहीं तो शान्ति कहां? शान्ति नहीं तो सुख कहां। उसका भी तो कछ जाता रहता है। इसलिये स्वाध्याय का कोई अन्य फल मिले या ना मिले मन को युक्त(एकाग्र) करने का अभ्यास तो हो ही जाता है। जो सब लाभों का लाभ है, सब सिद्धियों की सिद्धि है, सब सुखों का सुख है।
2. अपराधीन होता है (अपराधीनो भवति)-स्वाध्याय का दूसरा फल यह होता है कि मनुष्य पराधीन नहीं रहता, स्वाधीन हो जाता है। वह किसी भी प्रकार की गुलामी नहीं कर सकता, दासता उसे असह्य हो जाती है। दासता के जुए को वह अतिशीघ्र अपने कंधे से उतारकर फेंक देता है। स्वाध्याय से उसे इतना विवेक तो हो ही जाता है कि वह जान लेता है कि “सर्वं परवशं दुःखम्” “सर्वात्मवशं सुखम्” (मनु० ४-१३०) परवश होना दुःख है और आत्मवश होना सुख है। अतः स्वाध्यायशील व्यक्ति “अपराधीनो भवति” अपराधी न होता है।
3. दिनों दिन अर्थों की सिद्धि करता है (अहरहरर्थान् साधयते)-
स्वाध्याय के लाभ बताते हुए भगवान् याज्ञवल्क्य तीसरा लाभ “अर्थ-लाभ” बताते हैं। सांसारिक साधारण व्यक्ति हर बात में सौदेबाजी करता है। लाभों में भी पैसे के लाभ को सच्चा लाभ मानता है। वह कहता है कि जिसमें चार पैसे का लाभ न हुआ वह भी कोई सौदा है? ऐसे व्यक्ति के लिये भी इसमें गुंजाइश है कि स्वाध्यायशील व्यक्ति को अर्थलाभ भी होता है। “अहरहरर्थान् साधयते” दिनों-दिन वह अर्थों की सिध्दि करता है। ऐसे धन की जिसे कोई चुरा नहीं सकता- “प्रच्छन्नगुप्तं धनम्”।परन्तु यहां अर्थ से अभिप्राय केवल सूक्ष्म अर्थ ही न लेना चाहिए। वह भी एक अर्थ हो सकता है, परन्तु शतपथकार को जो वस्तु यहां अभीष्ट है, वह तो स्पष्ट है। (स्वाध्याय में आये हुए) किसी भी शब्द के पीछे जो-जो गहन अर्थ है उसकी सिध्दि कर लेना है।
4. सुख से सोता है(सुखं स्वपिति)-
स्वाध्यायशील व्यक्ति चैन की नींद सोता है। संसार के अनेंकों सुख हैं, परन्तु नींद से बढकर अन्य कोई सांसारिक सुख नहीं है। इसके लिए सम्पत्तिशील व्यक्ति पैसा बहाते देखे गये हैं, यह कहते सुने गयें हैं कि कोई दो घडी चैन की नींद दे दे, हमें सोने की औषधी दे। लोग इस सोने के लिए सोने की अशरफिएं लुटाते देखे गए, परन्तु हा! हतभाग्य को नींद कहां ? सारी रात करवतें बदलते गुजरती है। उसके भाग्य में नींद कहां ? सोना (धन) है, पर सोना (नींद) नहीं।
आचार्य चरक शरीर के आधार स्तम्भों का वर्णन करते हुए कहते हैं, “अथ खलु त्रय उपस्तम्भाः। आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यम्” (चरक संहिता ११. ३४-३५) इस शरीर के तीन आधार स्तम्भ हैं-भोजन, निद्रा और ब्रह्मचर्य। दूसरा स्थान इनमें निद्रा का है। स्वास्थ्य क मुख्य आधार भी तो ये तीनों हैं। शायद ‘स्वस्थ्य’ और ‘स्वप्न’ दोनों शब्दों का मूलतः अर्थ एक ही हो। स्व में स्थित होना स्वस्थ है तो स्व को पा लेना स्वप्न है। स्वमाप्नोति इति स्वप्नः। जो स्वस्थ है उसे बढिया नींद आएगी, और जिसे स्वप्न=नींद अच्छी आएगी वह स्वस्थ होगा। स्वप्न का यहां अर्थ सपना नहीं है। स्वप्न का यहां अर्थ अटूट नींद है, जिसमें व्यक्ति अपनी वास्तविक दशा में होता है। जब इन्द्रियां और शरीर के अवयव थक जाते हैं, तो वे अपने-अपने स्थान में बैठ जाते है। उनकी बाह्य वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। बस, तब नींद आ जाती है। इसी को स्वप्न कहते हैं। मानो हर किसी इन्द्रिय ने अपने को पा लिया। हर इन्द्रिय ने अपना घर पा लिया और आराम करने चली गई, इसी का निद्रा नाम हो गया। स्वाध्यायशील व्यक्ति “सुखं स्वपिति” सुखपूर्वक सोता है, और स्वप्नशील व्यक्ति स्वस्थ होता है।
5. अपना परम चिकित्सक होता है (परम चिकित्सक आत्मनो भवति)-
याज्ञवल्क्य कहते हैं कि स्वाध्यायी परम चिकित्सक बन जाता है। उसे चिकित्सा सिध्द हो जाती है। वह अन्यो की चिकित्सा ही नहीं करता, अपितु अपने-आपकी चिकित्सा करना जान जाता है। उसे अपने रोगों को झटककर परे हटा देने का अभ्यास हो जाता है। वह त्रि-रोगापनयन का माहिर बन जाता है। वह अपने रोग, उनका निदान और उनकी औषधी सभी कुछ जान जाता है। वास्तव में कोई भी शारीरिक रोग तभी होता है, जब कि मानसिक रोग हो। इसलिए कहा आत्मनः=आत्मा का चिकित्सक हो जाता है। वह रोग के मूल को जानता है और उसे वहीं उखाड फेंकता है। खांसी, जुकाम, जवर आदि रोगों का अपनयन तो करता ही है, परन्तु इनके मूल मानसिक रोगादि विकारों की चिकित्सा भी कर सकता है, करता है। उसे किसी डॉक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं रहती। मोहग्रस्त अर्जुन की भांति अन्य के पास अपनी चिकित्सा कराने नहीं जाता। “परमचिकित्सक आत्मनो भवति” में एक और भाव भी अन्तर्हित है। स्वस्य अध्यायः स्वाध्यायः अपने-आपका अध्ययन भी स्वाध्याय है। प्रायः देखा गया है कि डॉक्टर अपना इलाज स्वयं नहीं कर पाते। वे ऐसे घिर जाते हैं कि उन्हें अपनी चिकित्सा समझ नहीं आ पाती, परन्तु स्वाध्यायशील व्यक्ति को यह गुण प्राप्त हो जाता है कि वह चाहे अन्य की चिकित्सा नहीं कर पाये, अपनी चिकित्सा करने में सक्षम हो जाता है।
6. इन्द्रियसंयमी भवति (इन्द्रियसंयमो भवति)-
स्वाध्याय के अनेक लाभों में छठा लाभ इन्द्रिय संयम है। आज संसार के सामने यही समस्या है कि व्यक्ति इन्द्रिय निग्रह कैसे करे? इन्द्रिय निग्रह के कृत्रिम उपाय अपनाये जा रहे हैं। स्वाध्याय निग्रह मे संसार को विश्वास ही नहीं रहा स्वाध्याय के अनेक लाभों में छठा लाभ इन्द्रियसंयम है। आज संसार के सामने यही समस्या है कि व्यक्ति इन्द्रिय निग्रह कैसे करे? इन्द्रिय निग्रह के कृत्रिम उपाय अपनाये जा रहे हैं। स्वाभाविक निग्रह में संसार को विश्वास ही नहीं रहा। शतपथकार याज्ञवल्क्य कहते हैं स्वाध्याय से स्वाभाविक इन्द्रिय संयम होता है। मन जब स्वाध्याय के कारण तत्वार्थ चिन्तन में युक्त रहता है तो इन्द्रिय के विषयों से स्वाभाविक रूप से हटा रहता है। इन्द्रिय संयम तभी होता है जब मन इन्द्रियों के साथ लग कर सीमा का उल्लंघन कर लेता है। स्वाध्याययुक्त व्यक्ति के मन को इतना अवकाश ही नहीं कि वह अन्यत्र गमन करे वह तो तत्वचिन्तन करने वाली बुध्दि के साथ संयुक्त रहता है, अतः स्वाध्यायशील व्यक्ति को यह स्वाभाविक उपलब्धि हो जाती है। उसे इन्द्रिय निग्रह करना नहीं पडता स्वयं ही हो जाता है। इन्द्रियों के वशीकरण से जब और जितना चाहो उपभोग किया जा सकता है क्योंकि वे सदा अक्षीण शक्ति रहती हैं। क्षीण इन्द्रिय-शक्ति व्यक्ति को न सुख है न शान्ति। इस प्रकार स्वाध्याय से व्यक्ति इन्द्रियजित्, इन्द्रिय निग्रही और इन्द्रिय संयमी हो जाता है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी, उनका राजा इन्द्र बन जाता है- "इन्द्रियसंयमो भवति"।
7. एकारामता को प्राप्त होता है (एकारामता भवति)-
स्वाध्याय से होने वाले लाभों में सातवां लाभ लिखा है–एकारामता भवति स्वाध्यायशील व्यक्ति को एकारामता प्राप्त होती है। उसे ऐसा आराम प्राप्त हो
जाता है जो अद्वितीय हो, जिसकी उपमा न हो, जिसका सानी ढूंढे न मिल सके–ऐसे आराम को एकारामता कहते
हैं। आश्रम का फल आराम हैऔर वह भी एकाराम, तब समझना चाहिए कि
व्यक्ति का स्वाध्याय श्रम सफल हुआ। वैदिक-धर्मी के लिए आराम
का उतना महत्व नहीं जितना कि आश्रम का महत्व है। आश्रम-पालन उसका
कर्तव्य है, आराम की उपलब्धि उसे स्वतः है। वह भी न केवल आराम
की, अपितु एकाराम की। श्रम और राम से पहले जुड़े आङ् उपसर्ग ने
इनके महत्व को सहस्रगुणित कर दिया है। श्रम तो हो परन्तु पूर्ण श्रम हो।
एकारामता में एक अन्य भाव निहित है। आराम शब्द जहां उस स्थिति का सूचक है, जहां सब ओर से हटकर एक में रम जाना है,
पूर्णतया रम जाना है; वहां राम शब्द का एक अर्थ
खिलाड़ी है। जिस धातु से यह शब्द बना है उसका अर्थ है क्रीड़ा ‘रमु क्रीडायाम्’। किसी वस्तु में रमने का अर्थ भी यही है कि उससे खुलकर खेलना।
बस, सामान्य व्यक्ति और स्वाध्यायशील व्यक्ति में
यही अन्तर है। स्वाध्यायशील व्यक्ति यह सब जानकर भी अन्ततः उस परम अद्वितीय एक तत्व
परमात्मा से खेलता है। यदि खिलौना बनता भी है, तो एक उसी के हाथ
का खिलौना बनता है।ऐसे खिलाड़ी से खेल ठानता है जो अद्वितीय है, जो केवल एक ही है, जिसके तुल्य कोई नहीं। सामान्य व्यक्ति
से खेलना उसे अच्छा नहीं लगता। इस खेल में जो आनन्द है वह सांसारिक खेलों में कहां?
कभी उसे अपने हाथों में खिलाता है तो कभी उसके हाथों में खेलता है। दोनों
सखा जो ठहरे! इस सखा से खेलने में जो आनन्द आता है, एक वही अद्वितीय आनन्द होता है, जिसकी तुलना में अन्य
सभी सुख फीके पड़ जाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
धन्यवाद