मंगलवार, 17 सितंबर 2019

वैद्य के गुण-दोष


वैद्य के गुण-दोष एवं अध्ययन-अध्यापन विधि ((litities, defects, and study teaching method of vaidya)-

सुश्रुत संहिता के तृतीय अध्याय ‘अध्ययनसम्प्रदानीय’ अध्याय में बहुत ही अच्छे ढंग से  विचार किया गया हैं। आइये जानने का प्रयास करते हैं कि इस पर ऋषि ने क्या विचार दिया है।

1. विषयों का वर्गीकरण (Classification of Subjects)— इस संहिता के अन्दर कितने विभाग अध्याय आदि हैं, उनका वर्णन करते हुये वैद्य के गुण-दोष एवं अध्ययन-अध्यापन विधि  का वर्णन है।



वैद्य (चिकित्सक) की योग्यता (Ability of vaidya)—

वैद्य का अर्थ  होता है आरोग्य विद्या विज्ञान से युक्त होना, आरोग्य विषय का ज्ञाता। योग्य वैद्य वही कहलाता है जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान में निपुण हो, यानि चिकित्सीय शास्त्रों का अध्ययन तथा चिकित्सा-कर्म का अभ्यास तल्लीनता (मनोयोग) के साथ जिसने किया हो। दोनों ज्ञानों को आत्मसात् करने वाला वैद्य ही राजा तथा प्रजा के द्वारा सम्मान प्राप्त करता है। ऐसे योग्य चिकित्सक वैद्य को रोगी का रोग (कष्ट) दूर करने के कारण ही प्रजा द्वारा भगवान् की उपाधि द्वारा पुरस्कृत किया गया है।यदि वैद्य शास्त्र-ज्ञाता है किन्तु उसने कर्माभ्यास नहीं किया है तो ऐसे वैद्य रोगी को देखकर घबरा जाते हैं। वैसे ही कर्माभ्यास में निपुण (Good a Practice) है लेकिन शास्त्रज्ञान में शून्य है तो वह विद्वत्-समाज में सम्मान प्राप्त नहीं कर पाते हैं तथा समाज में उपहास का पात्र बनते हैं। ऐसे वैद्य दण्ड के अधिकारी होते हैं, दोनों ही अशिक्षित समझे जाते हैं। ये दोनों ही चिकित्सा कर्म में अनभ्यस्त तथा असमर्थ अधूरे ज्ञान वाले होते हुए एक पंख वाले पक्षी के समान हैं।

3. वैद्य की निन्दा (Denunciatiow of Vaidya)—

समाज में कैसे वैद्य की निन्दा अर्थात् अप्रतिष्ठा होती है इस पर भगवान् धन्वन्तरि उपदेश करते हैं कि एक वैद्य को चिकित्सा कार्य करने के लिए शास्त्र ज्ञान (सैद्धान्तिक ज्ञान) तथा व्यावहारिक ज्ञान (कर्माभ्यास) दोनों ही अनिवार्य हैं।

4. त्याज्य वैद्य (Castaway Vaidya)— जो वैद्य शास्त्र ज्ञान या कर्माभ्यास किसी में भी हीन हो वैसे वैद्य का त्याग करना चाहिए। ऐसे वैद्य से चिकित्सा नहीं करानी चाहिए। क्योंकि औषधियां अमृत तुल्य गुणकारी होने के  बावजूद भी वैद्य के प्रयोगविद् न होने से शस्त्र अथवा इसके द्वारा प्रयुक्त औषध वज्र तथा विष के समान प्राणहर होते हैं।  ऐसे वैद्य को आचार्य चरक ने (सूत्रस्थान १.१२८) मृत्यु का अनुचर बताया है।

 5. कुवैद्य की उत्पत्ति (Origin of false vaidya)— अर्द्धज्ञान युक्त कुवैद्यों की उत्पत्ति राजा के दोष से होती है, जो लोभवश लोगों के जीवनसे खेलने में संकोच नहीं करते हैं। आज समाज में ऐसे चिकित्सकों की फौज खड़ी है जो नित्य मोटी रकम के साथ-साथ जीवन को भी हर लेते हैं। ऐसे चिकित्सकों को ही ध्यान में रखकर किसी कवि ने ठीक ही कहा है—

वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराज-सहोदरम्। यमस्तु हरते प्राणान् वैद्यः प्राणान् धनान्यपि॥ 


अर्थात् हे यमराज के बड़े भाई वैद्यराज! तुम्हें नमस्कार है। क्यों कि यमराज तो केवल प्राणों को ही हरता है जबकि वैद्य तो प्राण तथा धन दोनों का ही हरण कर लेता है।आज आधुनिक चिकित्सा के चिकित्सक बड़े-बड़े भवनों में बैठकर चिकित्सा करने का दावा करते हैं लेकिन सामान्य ज्वर के रोगी को बचाने में असमर्थ होते हुए भी लाखों रुपये लेकर उसकी जीवन-लीला समाप्त कर देते हैं। चिकित्सा जैसे पुण्य/पवित्र कर्म को व्यापार बना दिया गया है जिससे समाज ‘त्राहि माम्-त्राहि माम्’ कह रहा है। कभी चिकित्सक को भगवान् का रूप माना जाता था पर आज एक डाकू से ज्यादा कुछ नहीं हैं। जो रोग के नाम पर लूटने के नये-नये तरीके निकाले हुए हैं। जब तक रोगी की सम्पूर्ण जमा पूंजी ले नहीं लेते, तब तक रोगी को नहीं छोड़ते। यहां तक भी देखने-सुनने में आया है कि किसी रोगी के शव को भी पैसे वसूलने के लिए जीवित बताकर काफी समय तक रखे रहते हैं।

6. वैद्य की प्रशंसा (Praise of Vaidya)— वैद्य का अर्थ होता है आरोग्य विद्या के विज्ञान से युक्त होना। ऐसे वैद्य समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं जो उभयज्ञ अर्थात् शास्त्र और कर्म दोनों में निपुण होकर समाज को आरोग्य प्रदान करने के उद्देश्य से, सेवाभाव से समाज की सेवा करते हैं। शास्त्रज्ञान और कर्माभ्यास रथ के दो चक्रों के समान हैं। दोनों चक्रों के स्वस्थ तथा सन्तुलित होने से ही जैसे रथ की अच्छी गति होती है वैसे ही इन दोनों में कुशल वैद्य ही प्रशस्त होता है और ऐसे निपुण वैद्य की सेवा से तृप्त, संतुष्ट होकर प्रजा वैद्य की प्रशंसा के गीत गाती फिरती है और मङ्गलकामनाओं की वर्षा करती है।

7. अध्यापन की विधि (Methad of Teaching) तथा 8. अध्ययन की विधि (Methad of Learning)— भगवान् धन्वन्तरि शिष्य सुश्रुत से कहते हैं कि हे वत्स! शल्यशास्त्र को कैसे पढ़ना चाहिए, मैं बताता हूं। तुम उसे आत्मसात् करो।

अध्ययन के समय हमारे वस्त्र स्वच्छ (साफ-सुथरे) होने चाहिएं। उत्तरवस्त्र धारण करना चाहिए। दत्तचित्त (एकाग्र होकर) तथा अभिवादन करके समीपस्थित (सामने बैठे हुए) शिष्य विद्यार्थी को शिष्य के सामर्थ्य के अनुसार गुरु द्वारा पद, पाद या श्लोक का अध्ययन कराना चाहिए। अर्थात् कम शक्ति वाले को एक-एक पद (शब्द) करके, मध्यम शक्ति वाले को एक-एक पाद (श्लोक का चतुर्थांश) तथा उत्तम शक्ति वाले को सम्पूर्ण श्लोक एक बार में पढ़ाए। आचार्य इस प्रकार पढ़ाये हुए पाठ को पुनः क्रमशः पद को पाद के साथ तथा पाद को श्लोक के साथ सम्मिलित कर प्रत्येक छात्र को अध्ययन करावे तथा शिष्यों को पढ़ाने के बाद शिष्य की सुविधा के लिए स्वयं पढ़े। पढ़ाते समय ध्यान रखे कि वर्ण, पद, पाद आदि का उच्चारण न तो अतिशीघ्रता से करे और न ही अतिविलम्ब से। ऐसा उच्चारण करे कि शिष्यों को एक-एक अक्षर स्पष्ट सुनाई दे। किसी वर्ण को दबाये नहीं। आंख, भौं, हाथ आदि अङ्गों से अभिनय न करे। अधिक क्लिष्ट शब्दों का उच्चारण न करे। अधिक ऊंचे या नीचे स्वर से न बोले। जब गुरु-शिष्य अध्ययन-क्रिया में संलग्न हों तो इन दोनों के मध्य से कोई आवागमन न करे।इस प्रकार अन्दर-बाहर से पवित्र, गुरु-सेवा में तत्पर, निपुण, प्रमाद तथा आलस्य से रहित शिष्य इस विधि से पढ़ते हुए सम्पूर्ण शास्त्र के अध्ययन में समर्थ होता है। अध्ययन पूर्ण होने पर शास्त्रानुसारी वाणी के प्रयोग में, शास्त्र के अर्थानुसन्धान में, उत्साहपूर्वक कर्म करने, कर्म में निपुणता प्राप्त करने, कर्म के पुनः पुनः करने तथा आरम्भ किये कर्म को सफलता तक पहुंचाने का प्रत्येक विद्यार्थी को यत्न करना चाहिए। इस अध्याय में हमने सुवैद्य की प्रशंसा तथा कुवैद्य की निन्दा के साथ-साथ अच्छे गुरु-शिष्य के प्रकार एवम् अध्ययन-अध्यापन विधि को भी ऋषि-परम्परा के अनुसार जानने का प्रयास किया।


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