रविवार, 31 मार्च 2019

आयुर्वेद का परिचय (Introduction of Ayurveda)


आयुर्वेद का परिचय (Introduction of Ayurveda)-

भारत के प्राचीन चिकित्सा वैज्ञानिक आचार्य सुश्रुत ने स्वास्थ्य संरक्षण हेतुसुश्रुत संहितानामक ग्रंथ की रचाना दो तंत्रों में की। पूर्व तंत्र में पांच स्थान तथा एक सौ बीस अध्याय है जबकि उत्तर तंत्र में छियासठ अध्याय हैं। प्रत्येक स्थान में अध्यायों की संख्या इस प्रकार है-
      सूत्रस्थान 46, निदानस्थान 13, शारीरस्थान 10, चिकित्सास्थान 40, कल्पस्थान 8 तथा उत्तरतन्त्र में 66 अध्याय हैं।


      औपधेनव, वैतरण, औरभ्र. पौष्कलावत, करवीर्य, गोपुररक्षित, तथा सुश्रुत आदि ऋषि अपनी समस्या लेकर भगवान् धन्वंतरी के पास पहुंचे। काशीराज दिवोदास भगवान् धन्वंतरी अपने आश्रम में अन्य ऋषियों के साथ बैठे थे। वहां पहुंचकर सभी ऋषि अपने शिष्य भाव को प्रकट करते हुये भगवान् धन्वंतरी से प्रजा की पीड़ा बताते हैं कि हे भगवन् ! प्रजा शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक आदि नाना प्रकार की ब्याधियों से ग्रस्त है, पीड़ित है, उसे दूर करने के उपाय बतायें जिससे कि इनका कष्ट निवारण होकर जीवन-यात्रा सुखद हो सके। इनकी पीड़ा देखकर हम सबके मन में बहुत पीड़ा होती है। हम सब आपके पास मनुष्यों के कष्ट निवारण हेतु ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा लेकर  आये हैं।
     1शल्यतन्त्र (Surgery)- चिकित्सा में इस तन्त्र का प्रयोग अनेक प्रकार के तृण (घास), काष्ठ (लकड़ी, तिनका), पाषाण (पत्थर), धूल, धातु (लौहादि), मिट्टी, हड्डी, केश (बाल), नाखून, किसी अंग से दुर्गन्धयुक्त पस आदि का स्राव होना, मूढगर्भ (Obstrueted labour), दुष्ट व्रण (घाव) आदि को ठीक करने के लिए किया जाता है।
      शल्यतन्त्र के अन्दर कई प्रकार के यन्त्र, क्षार, अग्नि आदि का प्रयोग रोग निवारण हेतु किया जाता है।
    2.  शालाक्य तन्त्र (Ophthalmology and Otorhinolaryngology)- इसके अन्दर गले से ऊपर आंख, कान, नाक, मुख आदि में होने वाले रोगों का वर्णन तथा उसे दूर करने के उपाय बताये गये हैं।
    3.    काय चिकित्सा (Madicine)- काय चिकित्सा के अन्तर्गत शरीर के सभी अंगों मे होने वाले ज्वर, रक्तपित्त, शोष (शरीर का सूखना), उन्माद (पागलपन), अपस्मार (मृगी), कुष्ठ (त्वचा रोग), प्रमेह, अतिसार आदि रोगों को दूर करने के उपायों का वर्णन है।
    4. भूतविद्या (Demonology)- भूतविद्या के अन्दर अदृष्ट भूतों निमित्त से होने वाले मानसिक रोगों के उपाय एवं चिकित्सा के विधियों का उल्लेख है।
    5. कौमारभृत- इसमें नवजात शिशु की देखभाल कैसे करें, प्रसूता (मां), धात्री, प्रसूता या धात्री के दूध के दोषों का संशोधन तथा दूषित दूध के पीने से शिशु में होने वाले रोगों का शमन आदि के ज्ञा आदि का विस्तृत वर्णन हैं।
   6.  अगदतन्त्र (Toxicology)- इस तन्त्र में विष विज्ञान की पूरी जानकारी दी गयी है कि जड़ जङ्गम के विष का प्रभाव शरीर पर पड़ता है तो उसे कैसे निष्क्रिय करें। जैसे किसी औषध, वनस्पति या कीड़े-मकोड़े, सांप, बिच्छू, चूहा, बिल्ली या किसी अन्य जानवर आदि काट ले तो उसके विष को प्रभावित होने से शरीर को कैसे बचायें।
   7.  रसायन तन्त्र (Geriatrics)- इस तन्त्र में शारीरिक, मानसिक, आत्मिक बल को निरंतर युवा के सदृश बनाये रखने हेतु उपायों का वर्णन है।
   8. बजीकरण- यह आयुर्वेद का आठवां और अंतिम अंग है। इसमें प्रजा (सन्तान) उत्पत्ति में बाधक कारणों को दूर करने की विधि चिकित्सा का वर्णन है। जैसे- वीर्य (शुक्राणु) का कम होना, शुक्राणु का कमजोर होना, शुक्राणु का दूषित होना आदि। सन्तान उत्पत्ति में बाधक कारणों को दूर करने वाले तन्त्र का नाम वाजीकरण तन्त्र है।
      भगवान् धन्वन्तरी अष्टांग आयुर्वेद का संक्षिप्त उपदेश करने के बाद शिष्यों से पूछते हैं कि कौन किस अंग का अध्ययन करना चाहता है। सभी शिष्यों ने सहमति बनाते हुये शल्य चिकित्सा पर उपदेश करने का निवेदन किया। भगवान् धन्वन्तरी ने एवमस्तुऐसा ही होगा कहकर स्वीकृति दी।      फिर शिष्यों ने कहा- हम सब एक ही विद्या को पढ़ना चाहते हैं अतः हममें से केवल सुश्रुत ही प्रश्न पूछेंगे। और जब आप उनके लिए उपदेश करेंगे तो हम सब भी उसे धारण कर लेंगे। गुरु जी बोले ठीक है, ऐसा ही होगा।
      प्रयोजन- हे पुत्र सुश्रुत! अब सुनो कि आयुर्वेद का प्रयोजन क्या है? आयुर्वेद के दो प्रयोजन हैं- . रोग से ग्रसित प्राणियों को रोग से मुक्त करना और . स्वास्थ्य की रक्षा करना।
      परम्परा- आयुर्वेद का अवतरण ब्रह्मा से प्रजापति, प्रजापति से अश्विनौ, अश्विनौ से इन्द्र, इन्द्र से धन्वंतरी, धन्वंतरी से सुश्रुतादि में हुआ है। सभी देवों ने प्रजाहित के लिए आयुर्वेद का उपदेश एक दूसरे को दिया। इस शास्त्र में पञ्चमहाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश) और आत्मा का संयोग पुरुष कहलाता है। इस पुरुष में ही चिकित्सा कर्म किये जाते हैं क्योंकि यही व्याधि एवं स्वास्थ्य का आश्रय है।
      यह सम्पूर्ण संसार स्थावर और जङ्गम भेद से आग्नेय एवं सोम तत्त्व की प्र्धानता से सौम्य भी कहा गया है।
      प्राणी-समुदाय- जगत् में प्राणी चार प्रकार के होते हैं-स्वेदज, अण्डज, जरायुज तथा उद्भिज्ज। इन सबमें पुरुष (मनुष्य) ही प्रधान है, बाकी सब इअसके उपकरण हैं, अतः अन्य अप्रधान हैं। इसलिए इस चिकित्सा शास्त्र का आधार भी पुरुष है।
      व्याधियां- जिसके संयोग से पुरुष को शारीरिक या मानसिक दुःख होता है, वही व्याधि (रोग) है। ये रोग भी आगन्तुक, शारीरिक, मानसिक तथा स्वाभाभिक भेद से चार प्रकार के हैं। उनमें बाह्य बाण आदि के प्रहार से उत्पन्न रोग आगन्तुक हैं। विषम अन्न-पान के सेवन से वात, पित्त, कफ, रक्त आदि सन्निपात के विषमता के कारण शारीरिक रोग होते हैं। इच्छा और द्वेष के भेद से क्रोध-शोक-भय-हर्ष-विषाद-ईष्या-असूया-दीनता-मात्सर्य-काम-लोभ आदि मानसिक रोग हैं। भूख, प्यास, बुढ़ापा मृत्यु निद्रा आदि स्वाभाविक रोग हैं। इनमें से कुछ रोग मन में होते हैं तो कुछ शरीर में तथा कुछ दोनों में होते हैं। अच्छी प्रकार आयु का परीक्षन करके संशोधन, संशमन, आहार तथा आचार के द्वारा इन रोगों को वश में किया जाता है।
      आहार- सभी प्राणियों बल, वर्ण और ओज का आधार आहार है। वह आहार छः रसों के अधीन है। रस द्रव्यों के अधीन हैं। द्रव्य औषधियां हैं। ये औषधियां स्थावर और जङ्गम भेद से दो प्रकार की हैं। इनमें भी स्थावर ओषधियां वनस्पति, वृक्ष, वीरुध और ओषधि ये चार हैं। इनमें पुष्परहित केवल फल वाले गूलर आदि वनस्पति, जिन पर पुष्प और फल दोनों आते हैं वे वृक्ष, लताएं और झाड़ियां वीरुध तथा फल के पकने के साथ ही जिनका अन्त हो जाता है वे धान आदि ओषधि कहाती हैं।
      जङ्गम भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज ये चार हैं। इनमें पशु आदि जरायुज, पक्षी-सर्प आदि अण्डज, कृमि-कीट आदि स्वेदज तथा मेंढक आदि उद्भिज्ज होते हैं। स्थावर ओषधियों के त्वचा (छाल), पत्र, पुष्प, फल, मूल, कन्द, गोंद, स्वरस आदि का तथा जङ्गमों के चर्म, नख, रोम आदि का ओषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

सूत्रस्थान का प्रथम अध्याय (आयु) वेदोत्पत्ति नाम से जाना जाता है। वेदोत्पत्ति यानि ज्ञान की उत्पत्ति। आयु के रक्षक ज्ञान की उत्पात्ति कैसे हुई इस पर इस अध्याय में वर्णन किया है।      मानव शरीर वैसे ही रहस्यमय है जैसे प्रकृति। प्रकृति के पांच तत्वों से बने इस शरीर में जब भी असंतुलन होता है तो शरीर की स्थिति अस्वाभाविक हो जाती है। शरीर में नाना प्रकार के लक्षण उभर आते हैं जिसे हम रोग के नाम से जानते हैं। जब हम अस्वाभाविक स्थिति के कारण मनुष्य बहुत दुःखी परेशान रहने लगा तब बुद्धिजीवी (ऋषि-मुनि) भी उनके दुःख-दर्द को देखकर दुःखी रहने लगे। उनमें उथल-पुथल मची और विचार विमर्श प्रारम्भ हुआ। विचार-विमर्श के बाद सात्विक बुद्धि के धनी ऋषियों ने कल्याणकारी मार्ग की खोज प्रारम्भ की। और सभी ऋषिगण ने आयुर्वेद के जनक भगवान् धन्वंतरी के पास जाने का विचार बनाया कि दुःखी लोगों के कष्ट निवारण में भगवान् धन्वंतरी ही हमारा मार्ग दर्शन कर सकते हैं।

भगवान् धन्वंतरी ऋषियों की बातों को सुनकर उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकारते हुये कहते हैं कि आप सभी अध्यापन के योग्य हैं आप सबका स्वागत है। और भगवान् धन्वंतरी जनकल्याण हेतु आयुर्वेद की शिक्षा आरम्भ करते हैं।      आयुर्वेद अथर्वेद का उपाङ्ग है। ब्रह्मा ने प्रजा की सृष्टि के पूर्व आयुर्वेद की रचना की थी। जिसमें एक लाख श्लोक और एक हजार अध्यायों का वर्णन था। बाद में लोगों की आयु तथा मेधा की अल्पता को देखकर आठ भागों में विभक्त किया जिसे आयुर्वेद के आठ अंग कहते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न है

      जिस शास्त्र के अन्दर जीवन, को स्वस्थ रखने के साथ-साथ जीवन को दीर्घ करने का ज्ञान भी है, वह आयुर्वेद कहलाता है। इसके प्रथम तथा प्रधान अंग को प्रत्यक्ष, अनुमान तथा उपमान प्रमाणों के अनुकूल अब तुम मेरे द्वारा कहे अनुसार अच्छी प्रकार धारण करो। आयुर्वेद के आठों अंगों में शल्य तन्त्र, शस्त्र, क्षार तथा अग्नि का प्रयोग होता है तथा अन्य सभी तत्त्वों को सामान्य क्रियाएं भी इसमें हैं। इसलिए यह शल्य तन्त्र शाश्वत है तथा साथ ही पुण्य, स्वर्ग. यश, आयु एवं जीवन-निर्वाह का भी श्रेष्ठ साधन है।

      पार्थिव द्रव्य- पार्थिव द्रव्य सोना, चांदी, मणि, मुक्ता, मनःशील तथा मिट्टी के कपाल आदि का ग्रहण होता है। रोग तथा चिकित्सा में निमित्त समय में- तूफान, कम वायु वाला समय, धूप, छाया, चांदनी, अन्धकार, शीत, उष्ण, वर्षा, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि का ग्रहण होता है। ये तूफान आदि स्वाभाविक रूप से ही दोषों के संचय, प्रकोप, प्रशमन तथा प्रतीकार के हेतु तथा प्रयोजन होते हैं।

      इस प्रकार यहां पुरुष, व्याधि, औषध तथा क्रियाकाल का संक्षेप से वर्णन किया गया। इसके आगे पांच (सूत्र, निदान, शारीर, चिकित्सा तथा कल्प) स्थानों के एक सौ बीस अध्यायों में इनका विस्तार से प्रतिपादन किया जायेगा। शेष रस-भेदादि तथा स्वस्थवृत्तादि का भी उत्तर तन्त्र में व्याख्यान होगा।

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