"पहला सुख निरोगी काया" स्वास्थ, संस्कार, चिकित्सा, सामाजिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक लेखों को पढ़े तथा ज्ञान वर्धन कर जीवन को उन्नत बनायें, धन्यवाद।
रविवार, 5 अगस्त 2018
शुक्रवार, 15 जून 2018
ग्रीष्म ऋतुचर्या
ग्रीष्म ऋतुचर्या
सर्दी
और गर्मी को मिलाने वाली तथा गर्मी का प्रारंभ करने वाली वसंत ऋतु समाप्त हो जाने पर
जिन महीने में गर्मी अपने पूरे रूप में पड़ने लगती है उस ऋतु का नाम ग्रीष्म ऋतु
है। इन दिनों सूर्य अपने अपनी पूरी शक्ति से संसार को तपाता है। सूर्य का ताप
प्रकाश और प्राण ग्रीष्म ऋतु में अधिक से अधिक प्राप्त होता है। इसलिए सूर्य से
मिलने वाले इन वस्तुओं का हमें इस ऋतु में अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए। सूर्य
रश्मियों के सहारे से अपने मलों और विकारों को निकालकर निर्मलता और पवित्रता
प्राप्त करनी चाहिए। यह काल आदान काल कहलाता है। साधारणतः समझा जाता है कि इस समय
हमारा बल-शक्ति आदि क्षीण हो जाते हैं। परंतु यदि हम इस ऋतु का ठीक उपयोग करें तो
इसके द्वारा हमारा कोई भी वास्तविक बल क्षीण न होगा, किंतु आदित्यदेव की पवित्रता कारक
किरणों के उपयोग से केवल मल, दोष और विकार ही क्षीण होते हैं। सूर्य भगवान् हमारे
शरीर में से केवल मलों और दोषों का आदान करके हमें पवित्र करते हैं।ग्रीष्म ऋतु के दो महीने जेष्ठ(शुचि) और आषाढ(शुक्र) है। इस
ऋतु में सूर्य अपने प्रचण्ड रुप में होता है। अपनी किरणों से जगत के स्निग्ध और
जलीय भाग को खींचकर प्रकृति में रुक्षता भर देता है। इस समय सूर्य बलवान तथा
चन्द्रमा बलहीन होता है। इस ऋतु से आदानकाल का अन्त होता है। यह ऋतु रुक्ष, पदार्थों में तीक्ष्णता
उत्पन्न करने वाली पित्तकारक तथा कफ नाशक है। इस ऋतु में वात संचित होता है।
इस ऋतु में मनुष्यों की जठराग्नि तथा बल क्षीण अवस्था में होते हैं। इस ऋतु में
शरीर से पसीना आदि निकलकर शरीर की शुद्धि होती है।
पथ्यापथ्य-
वसंत ऋतु में बढ़ा हुआ कफ ग्रीष्म ऋतु में शांत हो जाता है अतः इसलिए इस ऋतु में स्निग्ध, शीतवीर्य, मधुर तथा सुगमता से पचने वाले हल्के पदार्थों का सेवन करना चाहिए अर्थात गेहूं, मूंग, जौं, दलिया, जलालोडित सत्तू, लप्सी, श्रीखंड, दूध, घी, खीर, गुलकन्द, रसीले फल आदि का सेवन करना चाहिए।
आहार-विहार-
पथ्य व पोषक आहार यदि शरीर को न मिले तो शरीर में तत्काल कोई तत्काल ही दिखता है, बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि निर्माण में समय लगता है और विनाश में कोई समय नहीं लगता वो तुरन्त ही ढेर हो जाता है। इस ऋतु में जहां जल तत्व की कमी हो जाती है वहीं जल तत्व प्रधान खाद्य वस्तुओं की प्रचुरता रहती है। इस ऋतु में जल व जल तत्व की प्रधानता वाले आहार का सेवन अधिक करना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतु में मिलने वाले आहार-
नारियल, आम, संतरा, अनार, नींबू, फालसा, खरबूज, तरबूज, खीरा, ककड़ी, लॉकी, तोरई, कुष्मांड(पीला पेठा), परवल, चौलाई, हरा धनिया, पुदीना, आदि अनेक जलीय खाद्य पदार्थों की बहुलता होती है। आम पन्ना का सेवन लू में बहुत ही कारगर होता है।
सावधानी-
इस ऋतु में लवण, अम्ल, कटु(चरपरे), तिक्त, कषाय द्रव्य, गर्म भोजन आदि के सेवन से बचना चहिए या कम से कम मात्रा में उपयोग करना चाहिए। खट्टे भोजन उष्णवीर्य व पित्तवर्धक होते हैं, इसलिए इसका सेवन कम ही करना चाहिए।
विहार-
शीतल व शुद्ध जल का सेवन, शीतल गृह में रहना, रात्री में चन्द्रमा की चांदनी, सुशीतल, प्रवात(जहां वायु का निर्बाध संचार हो) युक्त हर्म्यमस्तक(मकान की छत) पर सोना स्वास्थ्य के लिए हितकारी है। चन्दन का लेप, मोती, मणियों, पुष्पों का माला धारण करना, बाग-बगीचों की शीतल छाया में भ्रमण करना स्वास्थ्यकर होता है।
सावधानी-
अधिक व्यायाम नहीं करना चाहिए। मैथुन से दूर रहना, धूप में अधिक देर तक रहना, खाली पेट(भूखे-प्यासे) धूप में जाना, धूप से आकर तुरन्त कोई भी पेय पदार्थं न लेना, पसीने में गीले होने पर किसी भी ठन्ढ़ी वस्तु का प्रयोग न करना, भूख सहन करना, मल-मूत्र के वेग को रोकना, क्रोध करना, शक्ति से अधिक कार्य करना, देर रात तक जागना आदि अपथ्य विहार का त्याग करना चाहिए।
पर्याप्त नींद न लेना-
इस ऋतु में रात्री छोटी होती है| गर्मी के कारण देर से सोने पर नींद पूरी न होने के कारण, पर्याप्त नींद नहीं ले पाते तथा सुबह देर तक सोते हैं। देर से सोने व नींद पूरी न होने से शरीर में उष्णता बढ़ती है जिससे मल सूखता है। आँखें नीरस, चेहरा तेजहीन होता है शरीर में सुस्ती तथा आलस्य बना रहता है।
प्रातःकाल की शुद्ध हवा सब रोगों की एक दवा-
प्रातःकाल
मल विसर्जन का समय होता है, वायु मल विसर्जन के लिए प्रेरित करती है, पर हम उस समय
विस्तर में पड़े रहते हैं। प्रातःकाल की वायु सेवन से शरीर में चैतन्यता व स्फूर्ति
प्राप्त होती है। मन शान्त तथा प्रसन्न होता है। फेफडों को जो ऑक्सीजन(प्राणवायु) प्रातःकाल प्राप्त होती है वो
दिन के किसी अन्य समय वो प्राणवायु नहीं मिल पाती है। इस जीवनदायी प्राणवायु को छोड़
विस्तर में पड़े-पड़े जीवन नाशक कार्बन डाईऑक्साइड को लेते रहते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में होने वाले रोग-
शरीर में रुक्षता व जल के कमी के कारण अधिक प्यास लगना, आलस्य, अनुत्साह, ग्लानि, थकान, उल्टी-दस्त (Vomiting-Diarrhea), लू लगना(Sunburn), सिरदर्द(Hadeca), खुजली, फोड़े-फुन्सी, नक्सीर, आदि।
वस्त्र-
ग्रीष्म ऋतु में हल्के रंग के तथा सूती वस्त्र पहनना स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है।
मंगलवार, 22 मई 2018
बेल का औषधीय प्रयोग
बेल का औषधीय प्रयोग
वनस्पति परिचय-
बेल
के वृक्ष लगभग भारत के सभी प्रदेशों में पाये जाते है। तथा 40-50 फिट ऊंचे होते हैं।
इसे बेल, बिल्व, श्रीफल, शांडिल्य, शैलूष, मालूर आदि अनेक नामों से जाना जाता है। यह
वृक्ष फाल्गुन-चैत्र में पत्रविहीन हो जाता है तथा चैत्र- वैशाख में पुनः नये पत्रों
के साथ सजकर हरा-भरा हो जाता है। औषधि निर्माण में इसके सभी अंगों का प्रयोग किया जाता
है। चिकित्सीय योगों में बिल्व चूर्ण एवं दशमूल का प्रयोग वैद्य जगत रोगों को ठीक करने
के लिए आधिकता से प्रयोग करता है।
बुधवार, 11 अप्रैल 2018
हस्तमुद्रा के चमत्कारी लाभ
हस्तमुद्रा के चमत्कारी लाभ
मानव शरीर वैसे ही रहस्यों भरा है जैसे प्रकृति। प्रकृति के पांच तत्वों ( अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी एवं जल) से बने शरीर में जब भी असंतुलन होता है तो शरीर की स्थिति अस्वभाविक हो जाती है। शरीर में नाना प्रकार के लक्षण उभर आते हैं जिसे हम रोग के नाम से जानते हैं। इस अस्वभाविक स्थिति को दूर करने के लिए बुद्धिजीवी(ऋषि-मुनि) वर्ग में उथल-पुथल मची। और सभी विचार-विमर्श के बाद अपने सात्त्विक बुद्धि के साथ कल्यणकारी कार्य के लिए, चिन्तन प्रारम्भ की तथा अनेक उपायों की खोज कर डाली। उनमें से सबसे सरल तथा बिना धन व श्रम खर्च का उपाय है मुद्रा का विज्ञान जो अपने ही हांथों में है। जिसे हस्तमुद्रा कहा जाता है।
मंगलवार, 27 मार्च 2018
उपवास का जीवन में महत्व-
उपवास का जीवन में महत्व-
उपवास का सामान्य अर्थ होता है अन्न का त्याग करना। उपवास की परम्परा आदि काल से चली आ रही है। उपवास को ऋषियों नें व्रत-त्योहारों से जोड़ा और व्रत-त्योहारों को ऋतुओं से। हमारे शरीर में, आहार-विहार के असावधानी से कुछ अनावश्यक पदार्थं जमा होते हैं जो ऋतु परिवर्तन के समय बाह्य अभिव्यक्ति यानि लक्षण दिखते हैं। जिसे हम रोग या बिमारी कहते हैं। जैसे- सर्दी-खांसी, ज्वर, सिरदर्द, पीलिया आदि अनेक रोग होते हैं जो असावधानी तथा अज्ञानता के कारण गम्भीर रूप धारण कर लेते हैं।
उर्जा(शक्ति)- स्वस्थ अवस्था में हमारे शरीर की जो उर्जा भोजन को पचाने में खर्च होती है वहीं उर्जा उपवास काल में शरीर के शोधन में खर्च होती है।
प्रथम चिकित्सक- उपवास बिना समय व पैसों का चिकित्सक है। उपवास में नहीं हमारा समय खर्च होता है नहीं पैसा। उपवास शरीर शुद्धि का प्राकृतिक उपाय है।
चिकित्सा शास्त्रों में चिकित्सा के उपायों में उपवास को प्रथम उपाय बताया है। जब हमारा शरीर विकार ग्रस्त होता है तो सबसे पहले हमारी भूख खत्म हो जाती है। अग्नि मन्द हो जाती है। भोजन के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है पर हम अज्ञानी प्रकृति के संदेश को नजरअंदाज करते हुए भोजन व दवाओं के पीछे भागते हैं तथा रोग दूर करने के बदले, अनेक रोगों को अपने शरीर में आने के लिए निमंत्रण देते रहते हैं।
हमारे शरीर में दो क्रिया निरन्तर होती रहती है- धारण(ग्रहण) और विसर्जन(छोड़ना, निस्कासन)।धारण करने वाले पदार्थं आहार आदि के सेवन करने के बाद आहार का विघटन होकर अनेक रासायनिक क्रियाओं के दो भागों में विभक्त होता है जिसे प्रसाद और मल कहा जाता है। प्रसाद भाग ही हमारे शरीर के लिए उपयोगी होता है। इसी से हमारे शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है। तथा दूसरा मल भाग बनता है जो शरीर के अनेक भागों से मल, मूत्र, पसीना आदि के रुप में बाहर निकलता है। जब मलों के निकलने में बाधा होती है तब शरीर धीरे विकृत होते-होते शरीर में विकृति के लक्षण स्पष्ट होते हैं फिर भी हम सावधान होने के बजाय दवाओं और भोजन के प्रति अधिक तीव्रता के साथ भागते हैं। पर समाधान नहीं मिलने से जीवन कष्टमय व निरस बन जाता है। स्वस्थ व सुखी जीवन के लिए उपवास अवश्य करें।
उपवास से लाभ-
- उपवास से हमारे शरीर मे इकट्ठा हुए विजातीय पदार्थं(अनावश्यक पदार्थं) निकल जाते हैं।
- उपवास से हमारे शरीर को किसी प्रकार की क्षति(हानि) नहीं होती है।
- उपवास से हमारा तन व मन प्रसन्न होता है। शरीर में ताजगी व स्फूर्ति का आती है।
- रक्त संचार की क्रिया में सुधार होता है जो शरीर को स्वस्थ रखने का मुख्य आधार है।
- उपवास से शरीर शुद्धि के साथ मन की भी शुद्धि होती है। तथा रोगों से मुक्ति।
- मन शान्त व एकाग्र होता है। मन के शान्त व एकाग्र होने से काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्या-द्वेष, घृणा, शोक आदि मानसिक विकार दूर हो जाते हैं।
सावधानी-
- स्वास्थ्य के इच्छुक व्यक्ति को 10-15 दिन में 1 बार उपवास अवश्य कर लेना चाहिए। रोगी व्यक्ति चिकित्सीय सलाह के बिना न करें।
- सामान्य व्यक्ति उपवास काल में नींबू-पानी या सामान्य पानी के अलावा कुछ अन्य पदार्थं न लें, रोगी चिकित्सक के निर्देशानुसार ही किसी भी पदार्थं का सेवन करें।
- उपवास का समापन रसाहार या फलाहार से करना चाहिए। कोई ठोस आहार, ठण्डे व गर्म पदार्थ, तली-भुनी चीजों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
शनिवार, 10 मार्च 2018
अडूसा
अडूसा
औषध
परिचय- इसके पौधे छोटे तथा झाडीदार होते हैं। इसे संस्कृत में वासा, वासक, अडूसा, आटरूषक,
वृष, वाजिदन्त, वासिका आदि कहा जाता है। इस पर पुष्प का शरद ऋतु में आते हैं तथा
गु्च्छों के रुप में लगते हैं। यह भारत के लगभग सभी स्थानों में पाये जाते हैं। निधण्टु
में इसका स्थान गुडूच्यादि वर्ग के अन्दर है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
popular posts
शिवरात्रि पर भोलेनाथ का संदेश
🚩🚩🚩🐍शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं🚩🚩🚩🐍 शिवरात्रि पर भोलेनाथ का संदेश- स...
समर्थक
-
वैद्य के गुण-दोष एवं अध्ययन-अध्यापन विधि ((litities, defects, and study teaching method of vaidya)- सुश्रुत संह...
-
स्वाध्याय के लाभ- स्वाध्यायशील व्यक्ति को भगवान् याज्ञवल्क्य ने इहलोक और परलोक सिद्धि के 10 साधन बतायें हैं- स्वाध्याय के लाभ के रूप म...
-
आयुर्वेद का परिचय (Introduction of Ayurveda)- भारत के प्राचीन चिकित्सा वैज्ञानिक आचार्य सुश्रुत ने स्वास्थ्य संरक्षण हेत...