बुधवार, 11 अप्रैल 2018

हस्तमुद्रा के चमत्कारी लाभ

         हस्तमुद्रा के चमत्कारी लाभ

मानव शरीर वैसे ही रहस्यों भरा है जैसे प्रकृति। प्रकृति के पांच तत्वों  ( अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी एवं जल) से बने शरीर में जब भी असंतुलन होता है तो शरीर की स्थिति अस्वभाविक हो जाती है। शरीर में नाना प्रकार के लक्षण उभर आते हैं जिसे हम रोग के नाम से जानते हैं। इस  अस्वभाविक स्थिति को दूर करने के लिए बुद्धिजीवी(ऋषि-मुनि) वर्ग में उथल-पुथल मची। और सभी विचार-विमर्श  के बाद अपने सात्त्विक बुद्धि के साथ कल्यणकारी कार्य के लिए, चिन्तन प्रारम्भ की तथा अनेक उपायों की खोज कर डाली। उनमें से  सबसे सरल तथा बिना धन व श्रम खर्च का उपाय है मुद्रा का विज्ञान जो अपने ही हांथों में है। जिसे हस्तमुद्रा कहा जाता है। 


इस विज्ञान में हांथ की अंगुलियों को आपस में मिलाकर आकृति बनाई जाती है। मुद्रा तो अनेक हैं लेकिन कुछ आसान सी मुद्रा को सामान्य जन के लिए प्रचारित किया जिससे कि साधरण से साधारण लोग भी कर सकें तथा स्वास्थ लाभ पा सकें हमारे हांथ में पांच अंगुलियां हैं इन अलग-अलग अंगुलियों में अलग-अलग पांचों तत्व  प्रतिष्ठत हैं। रोग की अवस्था में इनको आपस में से मिलाने से रोग दूर होते । यह  चैतन्यता की अभिव्यक्ति की कुंजि है। इस कुंजि के द्वारा शारीरिक तथा मानसिक क्षमता को बढाया जा सकता है।

सावधानी- मुद्रा कभी भी भोजन के बाद न करें। खडे होकर न करें। गर्भावस्था में नहीं करना चहिए। मुद्रा करते समय अन्यअंगुलियों को सीधा रखें। मुद्रा पद्मासन, सुखासन या वज्रासन की स्थिति में सीधे बैठकर ही करें।            

1. ज्ञानमुद्रा-

विधि- यह मुद्रा अंगुठा और तर्जनी के अग्र भाग को आपस में मिलाने से बनती है।

लाभ- इस मुद्रा को करने से स्मरण शक्ति तथा चिन्तन शक्ति बढ़ती है। पढने-लिखने वाले लोगों के लिए बहुत ही लाभकारी है। मानसिक रोगों को दूर करने  में सहायक  है। इससे अनिद्रा, चिड़चिड़ापन आदि दूर होते हैं। इससे ज्ञान वृद्धि में अग्रसर होते रहते  । इसे ध्यान मुद्रा भी कहा जाता है। योगी व तपस्वी जन ध्यान लगाने के लिए इसी मुद्रा का प्रयोग कर  ज्ञानवर्द्धन करते हैं। आध्यात्म शक्ति का विकास होता है। अनिद्रा तथा क्रोध नष्ट चंचलता, घबराहट आदि होते हैं।       

 2. वायु मुद्रा- 

विधि- यह तर्जनी अंगुली को अंगुठे से दबाने से बनती है।

लाभ- इस मुद्रा को करने से वायु के रोग दूर होते हैं। लकवा, कम्पन(शरीर के किसी अंग का हिलते रहना), गठिया, वायुशूल, रेंगने वाले दर्द (शरीर में चींटी के चलने जैसी अनूभूति होना)आदि।                                           

3. सूर्यमुद्रा- 

विधि- यह अनामिका को अंगुठे की जड़ में लगाकर अंगुठे दबाने से बनती है

लाभ- इससे मोटापा व शरीर का भारीपन दूर होता है।

सावधानी- दुबले-पतले व्यक्ति न करें। गर्मी में या पित्त प्रकृति के लोगों को नहीं करना चाहिए।

4. लिंगमुद्रा- 

विधि- यह दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में मिलाकर फंसाकर अगुठे को उपर की ओर बाहर निकालने से बनती है।

लाभ- इसको करने से नजला-जुकाम, खांसी,साइनस, आदि सर्दी के रोग दूर होते हैं। इससे शरीर में गर्मी बढती है। लकवा, निम्न रक्तचाप में लाभप्रद होता है।

सावधानी- इसमें फल, दूध, घी आदि का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में सेवन करना चाहि

 5. पृथ्वी मुद्रा- 

विधि- यह अनामिका  और अंगुठ के अग्र भाग को मिलाने से बनती है।

लाभ- इससे दुबले-पतले व्यक्तियों के तेज व कांति की कमी को दूर होती है तथा शरीर पुष्ट होता है। पाचन क्रिया में सुधार होता है। यह विचारों के संकुचन को दूर करता है। सात्विक गुणों का विकास होता है।                                                                       

 6. प्राण मुद्रा-

विधि- कनिष्ठा और अनामिका के अग्र भाग को अंगुठे के अग्रभाग को मिलाने से बनती है।लाभ- यह मुद्रा हमें शारीरिक व मानसिक रुप से शक्तिशाली बनाता है। इससे बिमारियों का आक्रमण नहीं होता है। रक्त नलिकाओं की रुकावट दूर होती है। इससे तन-मन में स्फूर्ति, आशा एव उत्साह बढ़ती है। नेत्रदोष दूर होते हैं। रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढती है। इसको करने से शरीर की थकान दूर होती है तथा नव शक्ति का संचार होता है। मन शान्त होता है। उपवास काल में इसको करने से भूख-प्यास नहीं सताती है।                                                       

7. अपान मुद्रा- 

विधि- मध्यमा और अनामिका को एक साथ मिलाकर तथा मोड़कर अंगुठे से स्पर्श करने से बनता है।

लाभ- यह उदर के वायु को कम करता है। इसको करने से उदर का दर्द व उदर के अन्य उपद्रव दूर होते है। सिरदर्द, दम्मा आदि में  लाभ होता है। दिल के दौरे के समय यह बहुत ही कारगर साबित होता है।                                    

 8. शून्य मुद्रा-

विधि- यह मध्यमाअंगुली को को मोड़कर अंगुठा से दबाने से बनता है।

लाभ- यह कर्ण  व गले के रोगों में लाभकारी है। निरन्तर अभ्यास से रोग दूर होते हैं। बहरापन दूर होता है। मसूडों का ढीलापन दूर करता है।           

9. हृदय मुद्रा- 

विधि- इसे अपानवायु मुद्रा भी कहा जाता है। इस मुद्रा को बनाने के लिए तर्जनी अंगुली को मोड़कर अंगुठे की गद्दी(मूल) पर लगाते हैं। फिर कनिष्ठा अंगुली को छोड़कर मध्यमा और अनामिका को आपस में मिलाकर दोनों अंगुली के बीच में पहली रेखा के साथ मिला लें।

लाभ- यह मुद्रा दिल के दौरे को रोकने के लिए इंजेक्शन का काम करता है। इसका नियमित अभ्यास करने से हृदय रोग  ठीक हो जाते हैं।                                                       

 10. वरुण मुद्रा- 

विधि- यह कनिष्ठा और अंगुष्ठ के अग्रभाग को मिलाने से बनती है।

लाभ-इसका अभ्यास करने से जल तत्व की कमी से होने वाले रोग दूर होते हैं। त्वचा एवं रक्त विकार, रक्ताल्पता आदि दूर होते हैं। इससे त्वचा का रूखापन दूर होकर चमकदार व  मुलायम बनती है।


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