ईश्वरजापकोछोड़करउनसिक्कोंकीसुरक्षातथावृद्धिकेविषयमेंसोचनेलगाकिइनसिक्कोंकोमेरेघरसेकहींचोरचुराकरनलेजायें।उनसिक्कोंकेकारणअपनेपत्नी, बच्चेवपरिवारकेप्रतिभीअविश्वासीहोगया।इच्छा, स्वार्थतथाअविश्वासकेकारणवोदुःखीतथाअशान्तरहनेलगा।सभीकेसाथक्रोधवरुखाव्यवहारहोगयाजिसकेकारणउसकेदुकानदारीपरबुराअसरहुआ, ग्राहक का आना कम हो गया।ग्राहकों के कम होने से आमदनी भी कम हो गयी।
एक दिन ऐसा आ गया कि सोने के सिक्कों को एक-एक करके बेचना पड़ा और अन्त में ऐसी स्थिति हो
गयी कि परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए भी धन नहीं बचा। जो छाता निर्माता पहले शांतिपूर्ण
जीवन जीता था आज वह असंतोष व अशान्त जीवन जीने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता है।जीवन का संतोष से असंतोष में बदल जाना, शांन्ति
से अशांति का आगमन होना, सुख का दुःख में परिवर्तन होना,
इन सबका कारण अज्ञानता है। छाता बनाने वाले ने इस पर विचार नहीं किया
कि इस पुरस्कार के धन का हमारे जीवन में उपयोग क्या है? इस कहानी
से हमें यह सीख मिलती है कि “लालच मनुष्य का शत्रु है”आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह नहीं करना चाहिए।आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह यानि दुःखों
का संग्रह करना है। क्योंकि धन-सम्पति की अधिकता से राग-द्वेष, अहंकार आदि मानसिक व्याधियों का जन्म होता है।
शास्त्रों में सुख-दुःख को अपरिग्रह और परिग्रह कहा जाता है।
अपरिग्रह का मतलब होता है धन का संग्रह न करना तथा परिग्रह का मतलब होता है धन का संग्रह
करना। अपरिग्रह से सुख तथा परिग्रह से दुःख प्राप्त होता है। अपरिग्रह अष्टांगयोग का पहला अंग ‘यम’ का
पांचवां अंग है। सुखमय जीवन के लिए अपरिग्रह का पालन दृढ़ता से करना चाहिए।
धन से आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, ईच्छाओं
की नहीं।
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