🔥।।ओ३म्॥🔥
गृहस्थ आश्रम सर्वश्रेष्ठ आश्रम
गृहस्थ
जीवन भोग नहीं मोक्ष का मार्ग है-
नर और
नारी (पति और पत्नी),
नारी वही
जो नर और घर को,
सुव्यवस्थित
बना सके,
नारी के
हाथ सम्पूर्ण व्यवस्था है,
नारी गृह
व्यवस्था का,
नर
आर्थिक व्यवस्था का आधार है,
एक युगल के बहुत ही
सुन्दर वैदिक वाक्य है,
"एक घर का राजा"
"एक घर की 👸 रानी"
जब दोनों
मिल गये तो कैसी परेशानी।
पारिवारिक व सामाजिक स्वीकृति-
जब एक बच्चा अपनी शिक्षा काल (ब्रह्मचर्य काल) को पूर्ण कर लेता है तब पारिवारिक व सामाजिक कर्त्तव्यों, जिम्मेदारियों को निभाने के योग्य हो जाता है। तब वह वेद-मन्दिर अर्थात् गुरुकुल का कुल, गुरुकुल से पारिवारिक-सामाजिक सम्मान के साथ “समावर्तन संस्कार” के बाद अपने पिता के कुल में लौट आता है। तब बन्धु-बान्धव और सामाज की ओर से दायित्व प्रदान की जाती है जिसका नाम “विवाह” है। दायित्वों के संचालन के लिए युवा और युवती को एक साथ मिलाया जाता है। युवा-युवती के माता पिता सामाज के साथ महोत्सव मनाते हैं।
विवाह
संस्कार होने के बाद ही युवा-युवती, पति और पत्नी कहलाते हैं। पति का अर्थ होता है
पालन करने वाला। पत्नी(भार्या) का अर्थ होता
है भरणपोषण करने वाली। पति धनार्जन करता है पत्नी धन का सदुपयोग। पति के पवित्र कमाई
घर-परिवार का पालन-पोषण करती हुई अपने घर का मान-सम्मान बनये रखती है। नारी के कौशल से ही गृह का निर्माण होता है। नारी अपनी कुशलता के कारण गृहिणी कहलाती है।
उत्थान-
मानव
जीवन के उत्थान का प्रथम सोपान है गृहस्थ आश्रम। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इसे “पुरुषार्थ चतुष्य" कहा जाता है। इसको प्राप्त
किये बिना जीवन का उत्थान सम्भव नहीं है। गृहस्थ आश्रम एक प्रयोगशाला
है, पाठशाला है जहां पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना, समझना- समझाना, सिखना-सिखाना जीवन की समस्त क्रियायें समपन्न होती हैं। जो व्यक्ति इस पाठशाला में अपने पाठ्यक्रम को पूर्ण करता है वही सफल मनुष्य
कहलाता है।
गृहस्थ
को सफल बनाने के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार हैं-
1. समर्पण- पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति समर्पण का
होना अतिआवश्यक है। पारदर्शिता व विश्वास होना चाहिए। यदि एक-दूसरे के प्रति
अविश्वास पैदा हो गया तो दाम्पत्य जीवन नारकीय बनने में समय नहीं लगेगा।
2. संयम- संयम का महत्व सम्पूर्ण जीवन में है। लेकिन
दाम्पत्य जीवन के लिए अतिमहत्वपूर्ण है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर संयम किये बिना गृहस्थ जीवन का आनन्द
नहीं ले सकते हैं। गृहस्थ जीवन काम, क्रोध,
लोभ, मोह आदि पर नियंत्रण करने का एकमात्र साधन है।
3. निर्णय- सुव्यवस्थित व स्वस्थ गृहस्थ के लिए पति-पत्नी का सम्मलित अपना निर्णय होना चाहिए। तीसरे का नहीं, चाहे वह ससुराल पक्ष का हो या मायका पक्ष। आज तक का अनुभव है कि कोई भी गृहस्थ बिखरा-टूटा है तो इन दोनों के हस्तक्षेप के कारण ही टूटा है। अपना निर्णय अपने हाथ रखिये।
4. विचार- अपने शुभ चिंतकों वा अशुभ चिंतकों की बातों पर विचार अवश्य करना चाहिए। क्योंकि समाज से अच्छे-बुरे सभी तरह के विचार मिलते हैं।
5. आर्थिक व्यवस्था- आर्थिक व्यवस्था के आधार पर ही
व्यय(खर्च) करना चाहिए। इस विषय में जगत् प्रसिद्ध लोकोक्ति है "तेते पांव
पसारिये जेती लाम्बी सौर" इसका तात्पर्य यह है कि जितनी चादर है उसी के हिसाब से उसे ओढ़िये या बिछाइये वरना चादर फट जायेगी। जिस प्रकार सामर्थ्य से अधिक चादर को खींचने से चादर फट जाती उसी प्रकार आय से अधिक खर्च करने से जीवन कर्ज में
डूबकर दु:खी व कष्टमय बन जाता है। आय से अधिक खर्च मत करिये आय बढ़ाने का प्रयास
धर्म पूर्वक करिये।
7. संवेदना- संवेदना अर्थात् एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान देना। हमारे अन्दर किसी के कष्ट के निवारण की भावना सदा जागृत रहनी चाहिए, कष्ट
पहुंचाने का नहीं। संवेदनाएं ही हमें आपस में जोंड़े रखती है। इन संवेदनाओं के कारण
ही परिवार और समाज बनते और टूटते हैं।
8. सामर्थ्य- वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए पति-पत्नी को शारीरिक, मानसिक व आर्थिक रूप से समर्थ अर्थात् मजबूत होना बहुत आवश्यक है जिससे की वह आवश्यक आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकें।
9. कर्त्तव्य- पति-पत्नी को गृहस्थ धर्म का पालन, निर्वहन कर्त्तव्यनिष्ट होकर करना चाहिए।
10. बुद्धि- परमपिता से बस एक ही प्रार्थना हो हमारी बुद्धि एक-दूसरे के प्रति विपरीत न हो। हम
सदा सन्मार्ग पर चलें इसके लिए गायत्री मन्त्र का प्रात: सायं नित्य ही ग्यारह, इक्कीस व अपनी इच्छानुसार अवश्य करना चाहिए। जो गृहस्थ उपरोक्त बातों पर ध्यान रखता और उसका
पालन करता है वह कभी दु:खी नहीं हो सकता।
आज वैदिक
बातों को ठुकरा कर, वैदिक मार्ग को ठुकरा कर मानव नारकीय जीवन जी रहा
है। शादी से पहले हमबिस्तर हो रहा है जिसे (live in relationship) कहा जा रहा है। वैदिक भाषा व मान्यता के अनुसार ऐसे कार्य करने वाले को समाज व्यभिचारी कहता है जिसे पशु से भी निम्न व गिरा हुआ कहा गया है क्योंकि पशु
अपने स्वाभाविक गुणों से विपरीत कोई कार्य नहीं करता है।
गृहस्थ भोग नहीं मोक्ष का मार्ग है। यह तपस्थली है। सदाचार, सद्व्यवहार, अनुशासन, सभ्यता, संस्कृति का आधार है। राग-द्वेष से दूर होने का मार्ग है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सृष्टि के संचालन में, वृद्धि में अहम् भूमिका निभाता है। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास तीनों आश्रमों का पालन करता है। ब्रह्मचर्य काल ग्रहण काल है। मानव इस काल में माता-पिता, आचार्य व समाज से लेता है। गृहस्थ काल में अपने धर्म का पालन करते हुये लौटाता है। वानप्रस्थ और सन्यास काल अपने अनुभव को समाज से साझा करता है। जीवन में आने वाली कठिनाइयों से अवगत कराता है उसे सचेत करता है।
वेद व मनुस्मृति में मनु
महाराज ने गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ आश्रम कहा है।
“हम अपने धर्म का पालन
करें और दिव्य जीवन का आनन्द लें।
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