परोपकाराय फलन्ति वृक्षा:, परोपकाराय वहन्ति नद्य:।
परोपकाराय दुहन्ति गाव:, परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।
भावार्थ- संसार में जितने भी वृक्ष, वनस्पति, लताऐं हैं, वे सभी परोपकार के लिए अपना सर्वस्व लगाते हुए हैं। वे अपने स्वयं नहीं खाते बल्कि प्राणीमात्र के लिए उत्पन्न करते हैं। पृथ्वी की छाती पर बहने वाली सभी नदियां, झरने, तालाब आदि अपना जल नहीं पीते परोपकार के लिए ही समर्पित हैं। गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि पशु अपना दूध स्वयं नहीं पीते, संसार के सभी जड़-जड्गम जगत अपना जीवन परोपकार के लिए लगाए हुए हैं। से मानव! तू संसार का बुद्धिमान प्राणी है, अपने रक्षक जड़-जड्गम जगत को सुरक्षित रखते हुए संसार के कल्याणार्थ तन, मन, धन को न्योछावर कर। परोपकार ही मानव जीवन का धर्म हैं। धर्म ही मोक्ष यानि दुःख से छुटने का एकमात्र साधन है। इस साधन को अपनाकर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो।
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