गुरुवार, 20 जून 2019

योग और स्वास्थ्य


योग और स्वास्थ्य

योग का मतलब होता है किसी वस्तु या पदार्थ को एक-दूसरे में मिलाना अर्थात् जोड़ना। किसी भी वस्तु की वृद्धि हेतु योग, न्यूनता हेतु अयोग(अलग) करना।  योग और वियोग सुख-दु:ख का कारण  हमें अपने जीवन को सुखकर बनाने के लिए किन चीजों का योग तथा किन चीजों का अयोग करना है इसका ज्ञान होना चाहिए।
संसार के समस्त सुख-दु:ख का आधार है शरीर का होना। स्वास्थ्य के लिए जगत् प्रसिद्ध लोकोक्ति है-“पहला सुख निरोगी काया” किसी भी सुख को भोगने के लिए शरीर का निरोग रहना अतिआवश्यक है। हमारा शरीर रोग रहित व जीवन सुखमय कैसे रहें इसपर भारत के प्राचीन ऋषि वैज्ञानिकों (चरक, सुश्रुत, वाग्भट, पतंजलि आदि) ने बहुत ही विस्तार पूर्वक तथा सरल उपायों को बताया है जिसे अपनाकर स्वयं ही नहीं बल्कि परिवार व समाज को भी निरोग व उत्तम बनाने में सहयोगी बन सकते हैं।


योग जीवन जीने की कला है खुशियां मनाने का दिवस नहीं। यह कोई कर्मकाण्ड नहीं जो किसी विशेष दिन या अवसर पर मनाया जाये। यह पल-पल जीने का आधार है। सुखद जीवन का सुपथ है जिस पर जो व्यक्ति एक बार अग्रसर हो गया वो कुपथ की ओर कभी नहीं जा सकता।
योग विद्या भारत की प्राचीन विद्या है जिसे भारत के मनीषियों ने अपने पुरुषार्थ से वेद के विज्ञान को समस्त विश्व के कल्याण हेतु समाज को दिया और वो बिना धन व्यय(खर्च) के साधनों तथा विधियों को बताया जिसे कोई भी कहीं भी आसानी से कर सकता है। प्रकृति का नियम चक्रक चलता है। कभी कोई ऊपर जाता है कभी कोई नीचे आता है। रात के बाद दिन और दिन के बाद रात। जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म। जन्म से लेकर मृत्यु तक के यात्रा को जीवन कहा जाता है। इस जीवन यात्रा को पूर्ण करने में अनन्त जीवों का योगदान होता है। हम सभी जीवों का योगदान किस प्रकार ले कि हमारा जीवन सुख, शान्ति और समृद्धि के साथ पूर्ण हो। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने आठ अंग बताये हैं जिसे “अष्टांगयोग” के नाम से जानते हैं।
योग का वर्गीकरण-
1. यम- यम का अर्थ है छूटना। प्रत्येक व्यक्ति एक ही चीज से छूटना चाहता है और वो है दु:ख से छूटना। दु:ख से छूटने के पांच साधन अहिंसा- किसी को किसी भी प्रकार तरह से हानि न पहुंचाना अहिंसा कहलाता है।
2. सत्य- किसी भी स्थिति में असत्य भाषण न करना।
3. अस्तेय- किसी भी वस्तु को, वस्तु के मालिक से बिना आज्ञा न लेना।
4. ब्रह्मचर्य- मन, वचन कर्म से अपने जीवन को संयम पूर्वक संरक्षण करना, जीवन के उन्नत बनाने हेतु ज्ञानार्जन में रत रहना ब्रह्मचरय कहलाता है।
5. अपरिग्रह- जीवन में अनुपयोगी व आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना अपरिग्रह कहलाता है। इसके विपरीत करना शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, पारिवारिक व सामाजिक दु:ख को आमंत्रण देना है।

2. नियम-यह भी पांच प्रकार के हैं-
1. शौच- शौच का अर्थ होता है आन्तरिक और बाह्य पवित्रता रखना।
2. संतोष- अपनी योग्यता और पुरुषार्थ से प्राप्त धन को पा कर खुस रहना संतोष है।
3. तप- जीवन के अनुकूल व प्रतिकूल हर परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखना तप कहलाता है।
4. स्वाध्याय- स्वाध्याय से तात्पर्य है दु;खों से छुटने व सुख को पाने के लिए ईश्वर तथा ऋषि कृत आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना-पढ़ाना।
5. ईश्वर प्राणिधान- ईश्वर प्राणिधान का मतलब है अपने सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित होकर करना। ऐसा करना से कोई भी कार्य न अधूरा रहता है न बिगड़ता है।

3.आसन- यहां योगासन का अर्थ है किसी भी आसन स्थिरता के साथ अधिक समय तक बैढ़ना। योगासन के अन्दर तीन-चार आसन ही आते हैं जैसे-पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, वज्रासन आदि हैं जिसे ज्ञानासन भी कह सकते हैं क्योंकि इन्हीं आसनों में हम अधिक समय तक बैठकर ध्यान, साधना तथा स्वाध्याय आदि कर सकते हैं किसी अन्य आसन में नहीं।
स्वास्थ्य आसन- शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शरीर को विभिन्न आकृति देना। इसके लिए ऋषियों ने अनेक आसनों का आविष्कार किया जिनके नाम जड़, जंगम यथा ऋषि-मुनियों के नाम पर रखा है।

4. प्राणायाम- प्राणायाम वह क्रिया है जिससे श्वांस को लेने व छोड़ने की लम्बा किया जा सके। जितनी लम्बी श्वांस की गति होगी उतनी ही अच्छी स्वास्थ्य। श्वांस के द्वारा ही रक्त शुद्धि कार्य होता है तथा रक्त के यज्ञ आधार पर शरीर का संचालन।
यदि हम अपने व समाज के स्वास्थ्य संरक्षण हेतु संकल्पबद्ध होते हैं उन विधियों को अपनाते हैं तब तो योग दिवस की मनाने का कोई अर्थ है अन्यथा निरर्थक।
उपर्युक्त योग के चार अंगों को दिनचर्या का अंग बताया गया है जिसे अपनाकर तन-मन को स्वस्थ रखते हुए जीवन यात्रा को सुख पूर्वक पूर्ण कि जा सकता है।  शेष चार अंगों में आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा पूर्ण करने का विधानों का वर्णन है। उन चार अंगों के नाम हैं-1.प्रत्याहार, 2. धारणा, 3.ध्यान और 4. समाधि।
गीता के छठे अध्याय जो ज्ञान, कर्म, उपासना का विषय है उसमें कर्मयोग में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है “योग कर्मसु कौशलं” अर्थात् कर्म की कुशलता ही योग है। यह श्लोक की अंतिम पंक्ति है। इसमें बताया कि हे मानव तू ऐसे कर्म में कुशल बन जो तूझे उन्नति की ओर ले जा सके।

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