शनिवार, 27 जुलाई 2019

शिक्षा व्यवस्था

                    शिक्षा व्यवस्था

शिक्षा का मतलब होता है सीखना अर्थात् ग्रहण करना। विद्या ग्रहण करने व कराने के लिए शिक्षक और विद्यार्थी, गुरु और शिष्य में कौन-कौन से गुण होने चाहिए उनका वर्णन इस लेख विस्तार से पढ़े।

1. उपनयन-संस्कार— शिष्योपनयन का मतलब होता है शिष्यों का उपनयन करना यानि शिष्य का आचार्य के समीप आना। इसे विद्यारम्भ संस्कार या शिक्षा-दीक्षा संस्कार भी कह सकते हैं। यह संस्कार विद्याग्रहण करने वाले विद्यार्थी का किया जाता है। यह संस्कार जीवन का सर्वोत्तम संस्कार है। इस संस्कार पर पूरा जीवन आश्रति है। इस पर जीवन का सम्पूर्ण विकास निर्भर है। इस संस्कार से व्यक्ति का चहुंमुखी विकास यानि शारीरिक, मानसिक, आत्मकि व सामाजिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। इसी से किसी व्यक्ति की विद्या-ग्रहण की योग्यता का परीक्षण भी होता है। इसीलिए आचार्य ने शिष्योपनयनअध्याय को यहां रखा है।




2. शिष्य के गुण  आयुर्वेद-ज्ञान के इच्छुक विद्यार्थी के गुण 

क्या होने चाहिएं, उन गुणों का वर्णन इस प्रकार बताया है

 1. वय (आयु) अवस्था आयुर्वेद के विद्यार्थी की युवा अवस्था (young-age) होनी चाहिए।

 2. शील (Good Charaector)  चरित्रवान् होना चाहिए। 3. शौर्य (Prowess, gallantry) पराक्रमी होना चाहिए। 4.शौच (Cleanliness) शुचिता, पवित्रता,शारीरिक तथा मानसिक रूप से शुद्ध रहने वाला होना चाहिए। 5. आचार (Manners) यानि आचरण व्यवहार-कुशल होना चाहिए। 6. विनय (Humility) स्वभाव से विनम्र होना चाहिए। 7. शक्ति (Energy) ऊर्जायुक्त होना चाहिए। 8. बल (Vigur) बलशाली होना चाहिए। 9. मेधा (Good Intelleet) बुद्धशिाली होना चाहिए।10. धृति (Steedfastness) धैर्यवान् होना चाहिए।11. स्मृति (Good memory) स्मृति शक्ति बलवती होनी चाहिए।12. मति (Judgement) निर्णायक बुद्धि होनी चाहिए।12. प्रतिपत्ति— अर्थज्ञान में निपुणता होनी चाहिए।14. जीभ, होठ, दन्ताग्र पतले होने चाहिएं।15. मुख, आंखें और नासिका सीधी होनी चाहिएं।16. प्रसन्नचित्त(CheerfulNature) मधुरवाणी (Plesant) होनी चाहिए।17. चेष्टाएँ (Mannes) सभ्य होना चाहिए।18. क्लेशसह (Painstaking) क्लेशों को सहन करने वाला होना चाहिए। आचार्य ने यहां निर्दिष्ट किया है कि आचार्य आयुर्वेद की शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी के गुणों का परीक्षण कर ले। यदि उपर्युक्त गुणों से विपरीत हो तो शिक्षा न दे।

3. दीक्षा-विधि शिष्यों के गुण-परीक्षण के बाद प्रवेश होने पर उन्हें शिक्षा हेतु यज्ञ तथा उपनयन संस्कार के द्वारा दीक्षति करने का विधान बताया है।

4. आयुर्वेदाध्ययन किसे एवं कैसे दें? आयुर्वेद की शिक्षा, बुद्धिशाली व श्रेष्ठ कुल के शिष्यों को उपनयन संस्कार से संंस्कारित करके आरम्भ करनी चाहिए। तथा निम्न कुल यानि विद्याहीन कुल में  उत्पन्न शिष्यों को विना उपनयन संस्कार के ही आवश्यकतानुसार शिक्षा आरम्भ कर देनी चाहिए।5. उपदेश यज्ञ तथा संस्कार के पश्चात् आचार्य अग्नि को साक्षी मानकर कुछ उपदेश करते हैं और शिष्य उन्हें अग्नि की साक्षी में सुनते हैं। आचार्य के द्वारा कुछ ऐसी बातों का उपदेश किया जा रहा है जो आयुर्वेद के विद्यार्थी के लिए त्याज्य तथा अत्याज्य हैं।

त्याग करने योग्य बातें1. काम (Lust), 2. क्रोध (Anger), 3. लोभ (Greed), 4. मोह (Infatuation), 5. मान (Pride), 6. अहंकार  (Egoism), 7. ईर्ष्या (Jealousy), 8. पारुष्य (Rudeness), 9. पैशुन्य (Back-biting), 10. अनृत (Falsehood) 11. आलस्य (Laziness), 12. अयशस्य (Defamatory) आदि का परित्याग करना चाहिए।

धारण योग्य1. केश, नाखून कटे होने चाहिए| 2. वस्त्र स्वच्छ कषाय Redhish brown dress) धारण करना चाहिए। 3. सत्यव्रत ( Vow of truthfuleness) एवं ब्रह्मचर्य का पालन तल्लीनता के साथ करना चाहिए। 4. किसी कार्य को आचार्य की आज्ञानुसार ही करना चाहिए। इसके विपरीत आचरण करने से विद्या फलवती नहीं होती, यश (Popularity) भी नहीं मिलता है।

6. भिषक् (अध्यापक) के प्रति नियम अध्यापक भी अपने लिए नियम बनाता है कि हे शिष्यो! तुम्हारे उपर्युक्त नियमों का पालन भली प्रकार करने के बाद भी यदि मैं अन्यथादर्शी तुम्हें विद्या का अच्छी प्रकार अध्यापन न कराऊं तो मैं पाप का भागी बनूंगा, मेरी विद्या असफल होगी।

7. शिष्य का रोगी के प्रति व्यवहार यहां आचार्य निर्देश देते हैं कि किस रोगी के लिए किस प्रकार का व्यवहार होना चाहिए। द्वजि (ब्राह्मण, क्षत्रयि, वैश्य), गुरु, दरिद्र, मित्र, प्रव्रजित, (तपस्वजिन), उपनत (विनम्रता पूर्वक उपस्थति) सत्यपुरुष, अनाथ तथा अभ्युपगत (सुदूर से आये) इन सबके प्रति हमारा व्यवहार मित्रवत् होना चाहिए। ऐसे लोगों के प्रति बन्धुवत् जानकर अपनी ओषधियों से चिकित्सा करने पर सुखद परिणाम प्राप्त होता है। तथा विद्या का प्रकाश होकर मित्र, यश, धर्म, अर्थ, और काम (कामनाओं) की पूर्ति होती है। किन्तु व्याध (Hunter), शाकुनिक (Fowler), पतित (Wicked Person), तथा पापकारी (Sinner) आदि की चिकित्सा करने से विद्या विकृत होती है एवं पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) आदि की प्राप्ति में बाधा होती है। तथा शत्रुता व अपयश की प्राप्ति होती है|

8. अध्ययन का काल एवं स्थान कुछ समय व स्थान ऐसे हैं जिनमें अध्ययन नहीं करना चाहिए। जैसेकृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या, शुक्लपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा। प्रातः-सायं का सन्धिकाल (Morning dawn and evening twilight), अकाल विद्युत् (Unseas- onal Lightening), अकाल मेघगर्जना (Thun-dering) तथा स्व-तन्त्र, स्व-राष्ट्र और स्व-भूपति के विपद्ग्रस्त होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।इसी प्रकार श्मशान, यान, मार्ग, वधस्थल (Staughter house), युद्ध के दौरान, महोत्सव काल (Important fastivals), औत्पादिक दर्शन (Natural calamities), अपवित्रावस्था तथा उन दिनों जब ब्राह्मणजन अनध्याय रखते हैं, अध्ययन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार इस अध्याय में उपनयन संस्कार, शिष्य के गुण, त्याज्य एवं ग्राह्य व्यवहार, आचार्य के कर्त्तव्य, रोगी के प्रति व्यवहार तथा उचित-अनुचित अध्ययन काल की चर्चा की गई जो कि आयुर्वेद के प्रत्येक अध्यापक एवं अध्येता को जानने आवश्यक हैं।

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