हमारे जीवन में फूलों जैसी सुगंध और मुस्कान हो
जिस प्रकार फूल अपने सौन्दर्य व सुगंध की चर्चा नहीं करते स्वतः होने लगती है। उसी प्रकार गुणी व्यक्ति को अपने गुणों की चर्चा नहीं करनी पड़ती स्वतः होने लगती है। बस हमें भी अपने महापुरुषों के पद्चिन्हों पर चलकर, उत्तम कर्म करते हुये निरन्तर आगे बढ़ते रहने का प्रयास करना चाहिए। “जैसा कर्म करोगे वैसा फल देगा भगवान्” ये है गीता का ज्ञान ये सब हम बचपन से सुनने आ रहे हैं, इसलिए हमें अपने जीवन के हर विपरीत परिस्थिति में धैर्य को धारण करना चाहिए। घबराना व विचलित नहीं होना चाहिए। बल्कि परमपिता परमात्मा पर भरोसा तथा उसी का चिन्तन-मनन करना चाहिए। क्योंकि दूसरा हमें हमारे कष्टों को दूर नहीं कर सकता। सृष्टि (प्रकृति) नश्वर नहीं परिवर्तनशील है। संसार के प्रत्येक वस्तु (चाहे जीव हो या प्रकृति) की कर्मानुसार चक्रक व्यवस्था है। हमें अपने जीवन में होने वाले परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।
जैसे फूलों की जीवन यात्रा मिट्टी से एक ‘बन्द कली’ से शुरु होती है तथा धीरे-धीरे सौन्दर्य और सुगन्ध को धारण कर कुछ समय तक वातावरण को सुगन्धित करते है, फिर धीरे-धीरे सौन्दर्य को खोते हुये मुरझा जाते हैं, मुरझा कर गिरकर पुनः मिट्टी में मिल जाते हैं और अपनी सुगन्ध छोड़ जाते हैं। वैसे ही जीव की जीवन यात्रा भी शुरु होती है।
फूलों की तरह हमें भी अपने जीवन में कर्म के कुछ ऐसे फूल खिलाकर जीवन यात्रा पूरी करने की कोशिश करनी चाहिए जिससे कि हमारे कर्म से लोग कुछ अच्छा करने की प्रेरणा ले सकें। दूसरों की पीड़ा हरने का कार्य कर सकें। लोक में एक लोकोक्ति सुनने को मिलती ‘कर भला तो हो भला’ इस लोकोक्ति के माध्यम से कितनी अच्छी बात कही गयी है। सुख चाहने वालों के लिए कितना बढ़िया संदेश है कि यदि हम अपना भला चाहते है, हम सुखी रहना चाहते हैं तो पहले दूसरों का भला करें, दूसरों को सुखी बनाने का प्रयास करें, तभी हमारा भला हो सकता है, हम सुखी रह सकते हैं। जिन बुजुर्गों या महापुरुषों ने समाज हेतु कल्याणकारी संदेश लोकोक्ति के माध्यम से दिया उन्हें बारम्बार नमस्कार है।
हमें जीवन में ईश्वर प्रदत (ईश्वर के कृपा से मिला हुआ) किसी भी शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक बल- सम्पदा का अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि ये सब परिवर्तनशील है। सदा के लिए न हम यहां रहने वाले हैं न हमारे वैभव। वैभव हमें हमारे जीवन यात्रा को सुगम-सरल बनाने हेतु प्राप्त हुये हैं तो हमें उसी रूप में उपभोग करना चाहिए। हमें अपने वैभव का उपयोग अपने तथा जरुरतमंद लोगों के हितकारी कार्यों में उदार मन करना चाहिए। इससे ह्मारे शारीरिक, मानसिक व सामाजिक स्वास्थ्य उन्नत होता है।
अभिमान पतन की सबसे बड़ी खायी है। इससे हमारी बुद्धि क्षीण एवं विकृत होती है। अभिमान के कारण व्यक्ति अपने से निचले स्तर या शक्तिहीन प्राणियों का उपहास व अपमान करने से नहीं चूकता। वह प्रकृति के नियम को भूल जाता है कि मैं ईश्वर की कृपा से शक्तिहीन से शक्तिशाली बना हूं। वह भूल जाता है कि मैं कुछ समय के लिए इस वैभव का भोक्ता हूं। लेकिन जो ‘कर भला तो हो भला’ का सूत्र अपने जीवन में अपनाता है उसके कार्यों की सुगन्ध फूलों की सुगन्ध की तरह चारों तरफ फैल जाती है। जिसकी चर्चा मरणोंपरान्त भी होती है।
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