॥ओ३म्॥
महामारी फैलने का मुख्य कारण
{Reasons for EPIDEMIC outbreak}
[ले०—दीपिका,
बी.ए.एम.एस.
द्वितीय वर्ष, पतञ्जलि आयुर्वेद महाविद्यालय, हरद्वार,
(उत्तराखण्ड)
9991337335]
[आज
न केवल मानव अपितु सम्पूर्ण प्राणि-जगत् विश्व स्तर पर त्रिविध तापों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) से त्रस्त
होकर त्राहि-त्राहि कर रहा है। सभी प्राणियों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ कहा गया
है (न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्। —महाभारत, शान्तिपर्व
३२९.८)]। लेकिन यह तब है जबकि वह स्वयं मर्यादित रहकर धर्मयुक्त आचरण करे। धर्म से
हीन होने पर इससे निकृष्ट भी कोई नहीं है—‘धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः’।
मनुष्येतर प्राणी प्रकृति-प्रदत्त मर्यादाओं में रहते हुए स्वजीवन को सञ्चालित
करते हैं। इसीलिए वे स्वाभाविक रूप से किसी के लिए संकट नहीं बनते। लेकिन जब
मनुष्य धर्मभ्रष्ट होता है तो यह न केवल प्राणिजगत् के लिए अपितु सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड के लिए विनाशक बन जाता है। जब-जब यह मर्यादाहीन, धर्महीन हुआ है
तब-तब किसी न किसी महामारी के माध्यम से यह सभी के लिए संकट बना है। हमें ऋषियों
के निर्देश सर्वथा ध्यान में रखने चाहियें कि— अपूज्या यत्र
पूज्यन्ते पूज्यानां तु विमानना। त्रीणि तत्र प्रवर्त्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम्॥ अर्थात् जिस देश व समाज में अपूज्य(दुष्ट) व्यक्तियों की पूजा होती है और पूज्य (परोपकारी) व्यक्तियों का तिरस्कार होता है वहां दुर्भिक्ष (अकाल), असामयिक मृत्यु तथा भय ये तीनों विपत्तियां सदा बनी रहती हैं।
इसी प्रकार के अनेक कारणों का विवेचन एवं विश्लेषण आयुर्वेद की अध्येत्री दीपिका
ने चरक संहिता, विमानस्थान के तृतीय-अध्याय के माध्यम से
प्रकृत लेख में किया है।—सम्पादक- वैद्य. सुनीता अग्रवाल]
जब-जब मनुष्य प्रकृति के विपरीत जाता है तब-तब उसे भयंकर क्षति का सामना करना पड़ता है। जैसा कि आजकल दिखाई भी दे रहा है Corona virus के रूप में। जो कहा जा रहा है कि चमगादड़ व सांपों में होने वाली बीमारी है पर आज मनुष्यों में भी देखी जा रही है। यह इसी का तो परिणाम है कि मनुष्य का जो धर्म है वह उसके विपरीत जा रहा है और प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहा है। तो प्रकृति तो अपना सन्तुलन सुधारेगी ही वह चाहे जिस भी रूप में हो, चाहे कोई प्राकृतिक आपदा भूकम्प आदि या कोई महामारी। यह कोई पहली बार नहीं है जो प्रकृति एक महामारी के रूप में अपना सन्तुलन बना रही है। हमारे संज्ञान में इससे पहले भी तीन बार प्रकृति यह दोहरा चुकी है—1720 में The Creat plague of Marveille के रूप में, 1820 में The cholera pandamic in Asia के रूप में तथा 1920 में Spanish flu के रूप में और अब 2020 में Corona virus outbreak के रूप में इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकृति अपना सन्तुलन बना ही लेगी चाहे हम उसके साथ कितनी ही छेड़खानी क्यों न कर लें। इसलिए हमें प्रकृति के सन्तुलन के अनुसार ही चलना चाहिए।
आचार्य पुनर्वसु आत्रेय ने भी (चरक, विमानस्थान, तृतीय अध्याय) कहा है कि—जब अस्वाभाविक रूप में रहने वाले नक्षत्र, ग्रहगण, चन्द्रमा, सूर्य, वायु, अग्नि और दिशाओं के तथा ऋतु-विकार को उत्पन्न करने वाले भाव दिखाई देते हैं तो भूमि से भी रस-गुण-वीर्य-विपाक से हीन ओषधियां उत्पन्न होंगी और अब जब आहार और औषध ही इस रसादि पंचक से विहीन होगा तो शरीर को उचित पोषण तो मिलेगा नहीं जिससे रोगों का उत्पन्न होना तो स्वाभाविक है। परन्तु यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि औषध को हमने समय रहते प्राप्त भी कर लिया फिर भी एक ही समय में भिन्न-भिन्न प्रकृति, आहार, देह, बल, सात्म्य, मन और आयु के मनुष्यों को एक ही रोग कैसे हो सकता है, जिसे हम जनपदोद्ध्वंस के रूप में भी जानते हैं?
इसका समाधान भी महर्षि पुनर्वसु आत्रेय ने किया है कि जैसे—प्रकृति आदि भावों के भिन्न-भिन्न होते हुए भी मनुष्यों के जो अन्य भाव-सामान्य हैं, उनके विकृत होने से एक ही समय में एक ही समान लक्षण वाले रोग उत्पन्न होकर जनपद को नष्ट कर देते हैं। वे ये विकृत भाव जनपद के विनाश में सामान्य होते हैं, जैसे—वायु, जल, देश और काल।
इनकी
विकृति होने से पूरे जनपद पर प्रभाव पड़ता है। वहीं यदि ये चारों अपनी अवस्था में
हों तो उस जनपद से उत्तम स्थान कोई नहीं रहता क्योंकि इन चारों के विकृत होने से
ही रोगों की उत्पत्ति होती है। यहां यह प्रश्न उठता है कि इनकी विकृति में कारण
क्या है—इसका कारण महर्षि पुनर्वसु आत्रेय ने अधर्म को माना है अर्थात्
प्रकृति के विरुद्ध कर्म, चाहे वह इस जन्म के हों या पूर्व जन्म
के। मनुष्य को अपने किए का फल तो मिलता ही है। प्रकृति के विरुद्ध कर्म करने पर भी
प्रकृति तो अपना सन्तुलन बनाएगी ही। कहा भी गया है—जैसा बोओगे वैसा
काटोगे। वह अधर्म चाहे अनुचित आहार ग्रहण करना हो, चाहे अनुचित
विहार हो। चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो, सभी कार्यों का
फल भोगना ही होता है। अनुचित आहार-सेवन का तो ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने ही है Corona Virus (COVID-19) के रूप में जिसे बताया जा
रहा है कि यह सांपों व चमगादड़ में होने वाला रोग है जो आज मानव जाति को डराए हुए
है। यह रोग आया कहां से, चमगादड़ और सांपों को खाने से ही ना! क्या
मानव के आहार में ये सब आता है? नहीं ना! अब हम अपनी जीभ के स्वाद के
लिए बेजुबान जीवों की हत्या करते रहेंगे तो प्रकृति एक ना एक दिन तो अपना प्रतिशोध
लेगी ही ना! जो आजकल देखा भी जा रहा है कि कैसे एक Virus के कारण समस्त
मानव जाति त्राहि-त्राहि कर रही है। सभी अपने घरों में कैद होने को मजबूर हैं।
अपनों से ही दूरी बनाने को बाध्य हैं। इसीलिए ना कि मनुष्य ने प्रकृति के साथ हद
से ज्यादा खिलवाड़ किया है।
अनुचित
विहार को भी हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि जैसे—आजकल cfc's chloro floro carbon gas का बहुतायत
में प्रयोग हो रहा है। जितने भी सुविधा के साधन हैं यथा, A.C., fridge आदि इन सब में तापमान को कम करने हेतु cfc गैस का उत्सर्जन होता है। जिससे
हमारे वायुमण्डल के तापमान में वृद्धि भी देखी जाती है। और यह पृथ्वी के चारों तरफ
बना प्राकृतिक कवच (Ozone layer) जो
हमें अन्तरिक्ष की हानिकारक गैसों व सूर्य से आने वाली तीक्ष्ण u.v rays से बचाती है, उसकी भी क्षति का कारण बन रही है। जो हमें आजकल Ozone hole के रूप में सुनने को भी मिलता है। जिससे हानिकारक u.v. rays पृथ्वी तक पहुंचती हैं और यहीं बन्धकर रह
जाती हैं जिसका परिणाम हमें Global warming के रूप में देखने को मिल रहा है, जिससे अनेक प्रजातियां लुप्त होती जा
रही हैं और पर्यावरण में बदलाव आ रहा है। और विभिन्न रोग उत्पन्न हो रहे हैं वो
अलग, विशेषकर त्वचा के रोग। ये सब जनपदोद्ध्वंस के उदाहरण ही तो हैं
जिसमें Corona Virus से विश्व में हजारों लोग काल के ग्रास
में समा चुके हैं।
महर्षि
पुनर्वसु आत्रेय जनपदोपद्ध्वंस के कुछ अन्य उदाहरण भी देते हैं—वायु
आदि की विकृति का कारण है अधर्म, अधर्म का आधार है असत्कर्म, असत्कर्म
का प्रज्ञापराध मूल है। जैसे—जब देश, नगर, निगम
तथा जनपदों के प्रधान धर्म का उल्लङ्घन करके अधर्म से प्रजा में व्यवहार करते हैं
तो उनके आश्रित नागरिक जन भी वैसा ही व्यवहार करते हुए अधर्म को बढ़ाया करते हैं।
तब वह बढ़ा हुआ अधर्म धर्म को दबा देता है, छिपा देता है। जब लोगों के व्यवहार में
धर्म दब जाता है तो उनके मध्य रहने वाले दिव्य पुरुष उन्हें छोड़ देते हैं। और ऐसे
जिनका धर्म दब गया है, अधर्म प्रधान हो गया है तथा जिन्हें दिव्य पुरुषों
ने भी छोड़ दिया है, ऐसे लोगों के देश में ऋतुएं अव्यवस्थित हो जाती
हैं, उससे समय पर वर्षा नहीं होती, अथवा बिल्कुल
नहीं होती या फिर विकृत होती है, वायु ठीक से नहीं चलती, भूमि
अनुपजाऊ हो जाती है, जल सूख जाता है, ओषधियां भी
स्वभाव को छोड़कर विकृत हो जाती हैं तो इस प्रकार स्पर्श के योग्य तथा खाने-पीने
योग्य वस्तुओं के दूषित हो जाने से जनपद नष्ट हो जाते हैं।
उन्होंने
युद्ध में होने वाली मृत्यु को भी अधर्ममूलक माना है, क्योंकि वहां भी
लोग, क्रोध, लोभ, मोह और अहङ्कारवश अपने ही भाई-बन्धु या
दूसरों से शस्त्रों से लड़ते हैं। और वहां भी एक-साथ बहुत से लोगों की मृत्यु अधर्म
के कारण ही होती है। इसलिए यह भी जनपदोद्ध्वंस का एक रूप हुआ।
अधर्म
या अन्य किसी अपवित्रता आदि अपचार को प्राप्त कर शारीरिक तथा मानसिक रोगों से लोग
मारे जाते हैं। इसलिए मानसिक विक्षिप्तता का आक्रमण भी अधर्ममूलक जनपदोद्ध्वंस
सूचक है।
इसी प्रकार अभिशाप से उत्पन्न होने वाले जनपदोद्ध्वंस का भी कारण अधर्म ही होता है। अर्थात् जब लोग धर्म को छोड़कर, धर्म से अलग होकर गुरु, वृद्ध, सिद्ध, ऋषि आदि पूज्य जनों का अपमान करके व्यवहार करते हैं तो इनके अपमान से भी वह प्रजा विनाश को प्राप्त हो जाती है।
इसीलिए मनु महाराज (8.15) ने सावधान किया है—
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥
इन्हें भी पढ़े
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
धन्यवाद