॥ओ३म्॥
वर्षा ऋतु का स्वास्थ्य पर प्रभाव
(Effect of rainy season on heath)
(Effect of rainy season on heath)
परिचय—
वर्ष
को दो भागों में विभक्त किया गया है—उतरायण और दक्षिणायन। उतरायण को
आदानकाल और दक्षिणायन को विसर्गकाल कहा जाता है। आदानकाल काल में सूर्य अपनी गर्मी
से जड़-जङ्गम सभी के बलों को क्षीण कर देता है, बलों का हरण कर
लेता है जिससे सभी में व्याकुलता रहती है, आलस्य-प्रमाद बना रहता है। लेकिन
विसर्गकाल में सूर्य की गर्मी (तेज) कम हो जाती है। इस समय चन्द्रमा बलवान् हो
जाता है तथा आकाश बादलों से आच्छादित हो जाता है और वह मनमोहक हो जाता है। वर्षा
एवं शीतल वायु के कारण पृथ्वी का तापमान कम हो जाता है। प्राणियों की व्याकुलता
दूर हो जाती है। आलस्य-प्रमाद समाप्त हो जाता है, कार्य और भोजन
में रुचि बढ़ जाती है।
जिस तरह वसन्त ऋतु में कोयल की कूक प्यारी लगती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु में मोर का नृत्य बहुत ही मनभावन होता है। वसन्त ऋतु में रंग-बिरंगी तितलियों की उड़ान अच्छी लगती है तो वर्षा ऋतु में जुगनू की प्रकाशभरी उड़ान। बच्चे-बड़े सभी इसको पकड़ने और छोड़ने का खेल खेलते व आनन्दविभोर होते हैं। वसन्त में कोयल की कूक तो वर्षा में मेढक की टर-टर और झिंगुर की झंकार से प्रकृति गुंजायमान हो जाती है। ग्रीष्म ऋतु में झुलसे, धूल से सने पेड़-पौधे वर्षा की पहली बारिस से नहाकर वसन्त ऋतु की तरह स्वच्छ तथा सौन्दर्ययुक्त तथा हरे-भरे हो जाते हैं।
स्वाध्याय—
वर्षा
ऋतु को स्वाध्याय का ऋतु भी कह सकते हैं क्योंकि प्राचीन काल में वर्षा के कारण
मार्ग अवरुद्ध हो जाने या आवागन में समस्या होने के कारण ऋषि-मुनि (परिव्राजक) लोग
एक स्थान पर रुककर आश्रमों आदि में वेदपाठ अर्थात् वेद का पठन-पाठन कराकर समाज को
लाभ पहुंचाते थे। आजकल भी वेदों वाले ऋषि, संन्यासी, समाजसुधारक,
महर्षि
दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित संस्था ‘आर्य समाज’ के माध्यम से
वैदिक सत्संग व वेदपाठ आदि वैदिक विद्वानों व विदुषियों द्वारा सम्पूर्ण भारतवर्ष
में कराया जाता है। वर्षा ऋतु के श्रावण मास की पूर्णिमा को वेददिवस या
संस्कृतदिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गुरु-शिष्य अपने रक्षासूत्र
यज्ञोपवीत (जनेऊ) को बदलते हैं अर्थात् पुराने जनेऊ को उतारकर नये जनेऊ को धारण
करते हैं।
आज
लोग इसे रक्षा-बन्धन के रूप में मनाते हैं। इसे भाई-बहन का त्योहार बताते हैं जबकि
रक्षा-बन्धन का इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं है। इसके चार मास (महीने) हैं इसलिए
चातुर्मास्य या चौमासा भी कहते हैं। इसके हिन्दी महीने आषाढ़-श्रावण (सावन),
भाद्रपद
(भादों) तथा आश्विन (क्वार) हैं। अंग्रेजी
मास जून, जुलाई, अगस्त और सितम्बर हैं अर्थात् जून के अन्तिम से
सितम्बर के तीसरे सप्ताह तक वर्षा ऋतु कहलाता है।
इस
तरह हमने प्राकृतिक और सांस्कृतिक रूप से वर्षा ऋतु के विषय में जाना। अब इस ऋतु
का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसे जानने का प्रयास करते हैं।
शरीर पर प्रभाव—
विसर्गकाल में पृथ्वी पर स्निग्ध बल वाले रस अम्ल, लवण,
और
मधुर बलवान् होते हैं। इसमें तीन ऋतु वर्षा, शरद् और हेमन्त।
वर्षा ऋतु में अम्ल रस बलवान् होता है। लेकिन वर्षा ऋतु में भूमि, जल
व वायुमण्डल दूषित रहता है। वायु में नमी तथा जल दूषित होने के कारण बीमारियां
अधिक होती हैं।
बीमारी—
इस
ऋतु में अशुद्ध जल का प्रयोग करने से अग्निमान्द्य, अतिसार
(उल्टी-दस्त, डायरिया), प्रवाहिका
(खूनीदस्त), मलेरिया व अन्य ज्वर, वात-विकार
(जोड़ों व बदन में दर्द), त्वचा-विकार दाद, खाज,
खुजली
आदि रोग हो जाते हैं।
क्या करें—
उचित आहार—
इस ऋतु में प्राणियों का बल कम तथा जठराग्नि मन्द हो जाती है तथा
ग्रीष्म ऋतु में संचित वात कुपित हो जाता है। अतः वातनाशक आहार तथा जठराग्नि को दीप्त
करने वाले आहार का सेवन करना चाहिए। मधुर, खट्टा तथा लवण रस प्रधान द्रव्यों का
सेवन लाभकारी है। घी, तेल का प्रयोग कम मात्रा में करना चाहिए।
इस ऋतु में खीर, दही, लौकी, तोरई, आम, जामुन, टिण्डा, सहजन, परवल, अदरक, पुदीना, तुलसी, लहसुन, प्याज, मेथी, सोंठ आदि का प्रयोग हितकर है। अन्न, गेहूं, पुराने शाली चावल, दलिया, खिचड़ी, मूंग आदि खाना चाहिए।
उचित विहार—
इस ऋतु में अग्निमान्द्य को दूर करने के लिए रस्सी के झूले पर झूलना भी एक अच्छा उपाय है। यदि यह झूला किसी बाग के वृक्ष की डाली पर हो, तब तो कहना ही क्या! वर्षा ऋतु में उमस व पसीने के जमा होने के कारण त्वचा मलिन हो जाती है। अतः त्वचा की मलिनता को दूर करने के लिए उबटन, तेलमर्दन, घर्षण करके स्नान कर शरीर को शुद्ध करना चाहिए और सुगन्धयुक्त पदार्थों का लेप तथा हल्के, स्वच्छ एवं सूती वस्त्रों को धारण करना चाहिए।
मक्खी-मच्छर से बचने के उपाय-
मक्खी-मच्छरों से बचाव के लिए यज्ञ करें या लोबान, कपूर आदि
जलायें, अगरबत्ती नहीं। फर्श आदि साफ करने के लिए सैंधा नमक, फिटकरी, सुहागा या नीम की पत्ती पानी में डालकर पोंछा लगायें। मच्छरदानी का प्रयोग करें। मच्छर भगाने वाले हानिकारक लिक्विड या अगरबत्ती आदि का नहीं, ये रोगोत्पादक उत्पादन हैं। मच्छरों से बचाव के लिए कहीं भी गन्दा पानी इकट्ठा न रहे जैसे कूलर, या आस-पास के गड्ढे या टूटे-फूटे कोई बर्तन आदि।
जल ही जीवन है अतः जल की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें क्योंकि जल का प्रयोग हमारे जीवन में सबसे अधिक है। वर्षा ऋतु नवजीवन का संचार करती है किन्तु कीट-पतंगे तथा सरीसृप आदि जन्तुओं की खूब भरमार होती है। वातावरण में नमी और गन्दगी रहती है। इनसे बचने के लिए उबला हुआ ठण्डा पानी पियें। दिन में सोना, ओस में सोना, कूलर में पानी डालकर उसकी हवा में सोना-बैठना, धूप में घूमना, गरिष्ठ तथा बासी भोजन व फ्रीज की ठण्डी वस्तु का सेवन न करें।
स्नान के पानी में नीम का पाउडर या फिटकरी मिलायें, स्वच्छ और निरोगी काया पायें।
‘करें प्रयोग रहें निरोग’
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