शनिवार, 20 जून 2020

योग का जीवन में महत्त्व (Importance of yoga in our day-to-day life)


                                                                      
                                                                        
                                                                    ॥ओ३म्॥

                           योग का जीवन में महत्त्व

      (Importance of yoga in our day-to-day life)

 दुःख-  संसार में तीन प्रकार के दु:ख होते हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक। इन दु:खों से छूटने का साधन है योग।

इन्हें पढ़ें- वज्रासन का स्वास्थ्य पर प्रभाव

योग का मतलब होता है किसी वस्तु या पदार्थ को एक-दूसरे में मिलाना अर्थात् जोड़ना। किसी भी वस्तु की वृद्धि हेतु योग, न्यूनता हेतु अयोग(अलग) करना।  योग और वियोग सुख-दु:ख का कारण  हमें अपने जीवन को सुखकर बनाने के लिए किन चीजों का योग तथा किन चीजों का अयोग करना है इसका ज्ञान होना चाहिए।





संसार के समस्त सुख-दु:ख का आधार है शरीर का होना। स्वास्थ्य के लिए जगत् प्रसिद्ध लोकोक्ति है-“पहला सुख निरोगी काया” किसी भी सुख को भोगने के लिए शरीर का निरोग रहना अतिआवश्यक है। हमारा शरीर रोग रहित व जीवन सुखमय कैसे रहे इसपर भारत के प्राचीन ऋषि वैज्ञानिकों (चरक, सुश्रुत, वाग्भट, पतंजलि आदि) ने बहुत ही विस्तार पूर्वक तथा सरल उपायों को बताया है जिसे अपनाकर स्वयं ही नहीं बल्कि परिवार व समाज को भी निरोग व उत्तम बनाने में सहयोगी बन सकते हैं।

योग जीवन जीने की कला है खुशियां मनाने का दिवस नहीं। यह कोई कर्मकाण्ड नहीं है, किसी विशेष दिन या अवसर पर मनाया जाये। यह पल-पल, क्षण-क्षण जीने का आधार है। योग सुखद जीवन का सुपथ है जिस पर जो व्यक्ति एक बार अग्रसर हो गया वो कुपथ की ओर कभी नहीं जा सकता।

योगविद्या भारत की प्राचीन विद्या है जिसे भारत के मनीषियों ने अपने पुरुषार्थ से वेद के विज्ञान को समस्त विश्व के कल्याण हेतु समाज को दिया और वो बिना धन व्यय(खर्च) के साधनों तथा विधियों को बताया जिसे कोई भी कहीं भी आसानी से कर सकता है। प्रकृति का नियम चक्रक चलता है। कभी कोई ऊपर जाता है कभी कोई नीचे आता है। रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आती है। जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म। जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा को जीवन कहा जाता है। इस जीवन यात्रा को पूर्ण करने में अनन्त जीवों का योगदान होता है। हम सभी जीवों का योगदान किस तरह से लें कि हमारा जीवन सुख, शान्ति और समृद्धि के साथ पूर्ण हो। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने आठ अंग बताये हैं जिसे “अष्टांगयोग” के नाम से जानते हैं।

अष्टांगयोग का वर्गीकरण-

1.यम- यम का अर्थ है आन्तरिक नियन्त्रण। प्रत्येक व्यक्ति दु:ख से छूटना चाहता है और वह आत्मनियन्त्रण के बिना सम्भव नहीं है। आत्मनियन्त्रण हेतु निम्न पांच साधन हैं।

(क). अहिंसा- किसी को किसी भी प्रकार से हानि न पहुंचाना अहिंसा कहलाता है।

(ख). सत्य- किसी भी स्थिति में असत्य भाषण न करना। 

(ग). अस्तेय- किसी भी वस्तु को, वस्तु के मालिक की बिना आज्ञा न लेना।

(घ). ब्रह्मचर्य- मन, वचन, कर्म से अपने जीवन को संयम पूर्वक संरक्षित करके उन्नत बनाने हेतु ज्ञानार्जन में रत रहना ब्रह्मचर्य कहलाता है।

(ङ). अपरिग्रह- जीवन में अनुपयोगी व आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना अपरिग्रह कहलाता है। इसके विपरीत करना शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, पारिवारिक व सामाजिक दु:ख को आमंत्रण देना है।

2. नियम- यह भी पांच प्रकार के हैं- 

      

   (क).  शौच- शौच का अर्थ होता है आन्तरिक और बाह्य पवित्रता रखना।

   (ख). संतोष- अपनी योग्यता और पुरुषार्थ से प्राप्त धन को पाकर खुश रहना संतोष है।

      

  3. तप- जीवन की अनुकूल व प्रतिकूल हर परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखना तप कहलाता है।     

 4. स्वाध्याय- स्वाध्याय से तात्पर्य है दु;खों से छूटने व सुख को पाने के लिए वेद तथा वेद के अनुकूल ऋषिकृत आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना-पढ़ाना तथा सुनना-सुनाना।

    

 5. ईश्वरप्रणिधान- ईश्वरप्रणिधान का मतलब है अपने सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित होकर करना। ऐसा करने से कोई भी कार्य न अधूरा रहता है, न बिगड़ता है।

3.आसन-


 यहां योगासन का अर्थ है किसी भी आसन में स्थिरता के साथ अधिक समय तक बैठना। योगासन के अन्दर तीन-चार आसन ही आते हैं जैसे- पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, वज्रासन आदि। जिन्हें ज्ञानासन भी कह सकते हैं क्योंकि इन्हीं आसनों में हम अधिक समय तक बैठकर ध्यान, साधना, स्वाध्याय, व चिंतन, मनन आदि कर सकते हैं, किसी अन्य आसन में नहीं।

स्वास्थ्य-आसन- 


शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शरीर को विभिन्न आकृति देना। इसके लिए ऋषियों ने अनेक आसनों का आविष्कार किया जिनके नाम जड़, जंगम यथा ऋषि-मुनियों के नाम पर रखे हैंं। आसनों के करने से हमारा शरीर लचीला, गठीला तथा सुन्दर बनता है। स्थूल व बेडौल नहीं बनता। स्वस्थ और सुन्दर शरीर सबको प्यारा लगता है। जिसे अच्छा शरीर चाहिए उसे आसन का अभ्यास नित्य करना चाहिए।


4. प्राणायाम- 


यह श्वसन तन्त्र को मजबूत बनाने की विधि है। प्राणायाम से श्वास को लेने व छोड़ने की गति को लम्बा किया जाता है। जितनी लम्बी श्वास की गति होगी उतना ही अच्छा स्वास्थ्य। श्वास के द्वारा ही रक्तशुद्धि का कार्य होता है तथा रक्त के आधार पर शरीर का संचालन। रक्त विकृत अर्थात् दूषित(गंदा) है तो शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता। स्वास्थ्य के इच्छुक व्यक्ति को प्रतिदिन 10 मिनट प्राणायाम अवश्य करना चाहिए।यदि हम अपने व समाज के स्वास्थ्य संरक्षण हेतु संकल्पबद्ध होते हैं, उन विधियों को अपनाते हैं तब तो योग दिवस को मनाने का कोई अर्थ है, अन्यथा निरर्थक। 

उपर्युक्त योग के चार अंगों को दिनचर्या का अंग बताया गया है जिसे अपनाकर तन-मन को स्वस्थ रखते हुए जीवन यात्रा को सुखपूर्वक पूर्ण किया जा सकता है।  शेष चार अंगों में आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा पूर्ण करने के विधानों का वर्णन है। उन चार अंगों के नाम हैं-1.प्रत्याहार, 2. धारणा, 3.ध्यान और 4. समाधि। 

                                                          

                                              "करें प्रयोग रहें निरोग"

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